पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२७

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& १२४ मनुस्मृति भाषानुवाद, परन्तु देवनोद्देश ( देवयज्ञ सम्बन्धी वनमाज ) में निमंत्रित ब्रह्मचारी रतवत (एक के घर भी चाहे) भोजन करें तो उस का व्रतं राम नहीं होता। तथा जीवित पितृनिमित्तक श्राद्धादि में मुन्यनो के ऋपितुल्य भोजन करने से भी (बत नष्ट नहीं होता) ॥१८९। परन्तु मनीषियों ने यह कर्म ब्रामण ब्रह्मचारी को कहा है, क्षत्रिय, वैश्यों का यह कर्म ऐमा नहीं है ॥१९०॥ चोदितो गुरुणा नित्यमप्रचादित एव वा । कुर्यादध्ययने यत्नमाचार्यस्य हितेषु च ॥११॥ शरीरं चैव वाच प शुद्धीन्द्रियमनांसि च । नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुराम खम् ॥१६२।। गुरु प्रतिदिन कहे वा न कहे पढ़ने में तथा गुरु की हित सेवा में यत्न करे।।१९९|| शरीर, वाणी, ज्ञानेन्द्रिय और मन का सयम कर हाथ जोड़ गुरु का मुख देखता हुआ (सामने) रहा करे ॥१९॥ नित्यमुघृतपाणिः स्यात्साध्वाचारः सुसंयतः । आस्थनामिति चोक्ता समासीतामिम्मुख गुराः ॥१९३|| हीनामवस्त्रवेषः स्यात्सर्गदा गुरुसन्निधौ । उत्तिष्ठेत्प्रथमं चास्य चरमं चैव संविशेत् ॥१६॥ निरन्तर (ओढने के वात्र से) दक्षिण हाथ बाहर निकाले रहे । अच्छाचार से युक्त "ठी" ऐसा (गुरु) कहे तब गुरु के सम्मुख बैठे ॥१९॥ सन गुरु से हीन (घटिया) अन्न वस्त्र वेप रख कर गुरु के पास रहे, गुरु से प्रथम जागे और गुरु के पश्चात् सोचे ॥१९॥