पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२८

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द्वितीयाऽध्याय प्रतिश्रवणसम्भाषे शयाना न समाचरेत् । नासीनो न च भुजाना न तिष्ठन्नपराङ्मुखः ॥१६॥ आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंस्तु तिष्ठतः । प्रत्युद्गम्य वाबजन पश्चाद्धावस्तु धावतः ॥१६॥ सोता हुआ या आसन पर बैठा हुआ या भोजन करता हुआ था और ओर मुख करके खड़ा हुआ गुरु से आज्ञा का उत्तर या सम्मापण न करें ॥१९५|| आसन पर बैठे हुवे गुरु थाना देवे वो आप आसन से उठ का और गुरु खड़े हो तो आप नमीप चलके और गुरु अपनी और पायें तो पार भी उन की ओर जाक और गुरु चलते र बोलें तो आप उनके पीछे चलता हुआ (संभा- पणादि करे)॥१९॥ पराङ्मुखस्याभिमुखा दूरस्थस्यैत्य चान्तिकम् । प्रणम्य तु शयानस्य निदेशे चैव तिष्ठतः ॥१६॥ नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसन्निधौ । गुरास्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥१९८|| गुरु पीछे हो तो सम्मुग्न होकर और दूर हो तो निकट आकर और लेटे हों तो नमस्कार करके और खड़े हो वो ममीप होकर (कहें सा सुने) ॥१९७|| गुरु के समीप इस (शिष्य) का विछौना वा श्रासन उनसे सहा नीचा हे। और गुरु के सामने मन मानी बैठक से न रहे ॥१९॥ नौदाहरेदस्य नाम परोक्षमपि केवलम् । न चैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम् ॥१६६||