पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१२९

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क २२६ मनुस्मृति भाषानुवार गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा वापि प्रवर्तते । कों तत्र पिघातभ्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥२००॥ गुरु का केवल नाम परोक्ष मे भी न लेवे और गुरुके चलने, घोलने या घंटा की नफल न करे ( १९९ के पूर्वार्द्ध से आगे मी १ श्लोक मु० हनुमानप्रसाद प्रयाग के पुस्तक मे पाया जाता है कि. [परोक्षं सत्कृपापूर्व प्रत्यक्षं न कथंचन । दुष्टानुचारी च गुगरिह वा मुत्र चैत्यवः ॥] गुरु का नाम परोक्ष में लेना हो तो नाम से पूर्व "सत्कृपा" लगा कर नाम लेवे, प्रत्यक्ष में सर्वथा नहीं। गुरु का दुष्टाचारी शिज्य इस लोक और परलोक मे नीचता को प्राप्त होता है। इस से भी पाया जाता है कि मनु में श्लोक प्रायः मिलाये गये हैं, क्यों कि यह श्लोक शेप २९ पुस्तकों में नहीं पाया गया) ॥१९९|| जहां पर कोई गुरु के दाप कहता हो वा निन्दा करता हो वहाँ पर कान बन्द कर लेवे या वहां से और जगह चला जावे ॥२०॥ परीवादात्खरामवति श्वा में भवति निन्दकः । परिभाक्ता कमिर्भवति कीटो भवति मत्सरी ॥२०॥ दूरस्था नार्चयेदेनं न ऋद्धोनान्तिके स्त्रिया । यानासनस्थश्चीनमवल्ह्याभिवादयेत् ॥२०२॥ गुरु की निन्दा सुनने से (मर कर) गधा होता है और निन्दा करने से (दूसरे जन्म मे) कुत्ता होता है और गुरु के अनुचित द्रव्य का मोचा शिष्य कृमि होता है और मत्सरता करने वाला कोट शेता है ।।२०।। गुरु की दर से पूजा न करे, क्रोधयुक्त हुआ मी न करे और जब गुरु अपनी स्त्री के साथ बैठे हो तब भी । स्वयं