पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१३०

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दिनीयाऽध्याय १२७ चान वा आसन पर पटा हुआ इनको उतरकर नमस्कार करे ।।२०२ प्रतिवातेऽनुवाते च नासीत गुरुणा सह । असंश्रये चैव गुगर्न किञ्चिदपि की चेद् ॥२०३ गोशोष्ट्रयानप्रासादस्रस्तन्यु कटेषु च । आसीत गुरुणा सार्थ शिलाफलकनीषु च ॥२०४|| जब मम्मुख शिष्य की ओर से गुरु की ओर वायु आवे वह प्रतिवात है । ऐसी जगह गुरु के माथ न बैठे और अनुवात (जहां गुरु का वायु अपने अपर आता हो) वहां मी न बैठे (किन्तु दाये बा बैं) और गुरु जो न मुन सके तो कुछ न कहे ॥२०॥ बैल, घोड़, ॐ की जाती हुई गाड़ी में और मकान की छत पर, पुराल तथा चटाई और पत्थर पर या लकड़ी की बडी चौकियों या नाब पर गुरु के साथ शिष्य के मकता है । गुरोर्गुगै सन्निहिते गुरुववृत्तिमाचरेत् । न चानिसृष्टी गुरुणा स्वन्गुरुनभिवादयेत् ॥२०५॥ विद्यागुरुग्वेतदेव नित्यावृत्तिः स्वयोनिए । प्रतिषेधत्सु चाधर्मान्हितं चोपदिशरस्वपि ॥२०६।। गुरु का गुरु समीप भावे, तो उससे भी गुरुवन् बर्ताव करें। गुरु के घर में रहने वाला शिष्य (गुरु के बिना कहे अपने गुरु) माता पित्रादि को नमस्कार न करे ।।२०५॥ विद्यागुरु पूर्वोक्त उपाध्यायादि और पिता आदि लोग तथा जो अधर्म से रोकने वाले और हित के उपदेश करने वाले हैं उनमे भी यही वृत्ति रक्खे (आचार्यवत् भक्ति रक्खे और नमवारादि प्रतिनि विवि के अनुकूल करे) IRE