पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१३१

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१२८ मनुस्मृति भाषानुवाद श्रेयासु गुरुववृत्ति नित्यमेव समाचरेत् । गुरुपुत्रेषु चार्येषु गुरोश्चैव स्वबन्धुषु ।।२०७॥ चालः समानजन्मा वा शिष्यो वा यज्ञकर्मणि । अध्यापयन्गुस्सुता गुरुवन्मानमर्हति ॥२०८|| विद्या तप से अधिको और आर्य गुरुपुत्रो तथा गुरु के बन्धुओं मे नित्य गुरु के सी वृत्ति रक्खे ॥२का छोटा हो वा समान आयु वाला हो वा अपना पढ़ाया हुआ हो, परन्तु यज्ञमे आकर ऋत्विज हुआ हो तव गुरुपुत्र पढ़ाता हुआ गुरु के समान पूजा पाने के योग्य है ॥२०॥ उत्सादनंच गात्राणां स्नापनोच्छिष्टमोजने । न कुर्याद्गुरुपुत्रस्य पादयोश्चाक्ने जनम् ॥२०६।। गुरुवातिपूज्या' स्युः सवर्खा गुरुयोषितः । असवर्णास्तु संपूया' प्रत्युत्थानामिवादनैः ॥२१०॥ शरीर मलना, निहलाना, उच्छिष्ट (शेष स्वच्छ) भोजन करना और पैरधोना, इतनी सेवा गुरुपुत्र की नकरे (अर्थात् ये गुरुकी ही फरनी चाहिये) ॥२०९|| सवर्णा गुरु की स्त्रियों का गुरुवत् पूजन करे और (अपने से) सवर्णा न हो तो उठकर नमस्कार करके ही उनका सत्कार करे (विशेष न करे) ॥१०॥ अभ्यञ्जनं स्नापनं च गात्रोत्सादेनमेव च । गुरुपल्या न कार्याणि केशानां च प्रसाधनम् ॥२११॥ गुरुपत्नी तु युवति भिवायेह पादयोः । पूर्णविशति वर्षेण गुणदोपौ विजानता ॥२१॥