पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१३३

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१३० मनुस्मृति भाषानुवाद गुरुद्वारेषु कुर्वीत सतां धर्ममनुस्मरन् ।।२१७॥ ॥ यथा खनखनित्रेण नरो वार्यधिगच्छनि । तया गुरुपता विद्या शुश्रुपुरधिगच्छति ॥२१८॥ प्रचाम से आकर पाइन्पर्श करके प्रतिदिन सत्पुरुषों के धर्म का स्मरण करता हुधा गुरुपनियों का (विना पाव छुचे) नमस्कार मात्र कर ले ॥२१॥ जैसे आई पुरुप कुनाल (फावड़े) से भूमि खोदता हुवा पानी को पाता है, वैसे ही गुरुम की विद्या को संवा करने वाला पाना है ॥१८॥ मुण्डावा जटिलाबाम्यादथवा स्याच्छिखाजटः । नैनं ग्रामेऽमिनिम्लाचेखर्यानाभ्युधियात् क्वचित् ॥२१॥ नंदम्युदियात्सूर्यः शयानं कामचारतः । निम्झायेद्वाप्यविज्ञानाजपन्नुपचसेदिनम् ।।२२०॥ मुण्डित अथवा शिखा वाला था जटायुक, इन तीन प्रकार में से ब्रह्मचारी कोई प्रकार रखे। गम में इसको कमी भी सूर्य अस्त ग उदित न हो ||२१|| यदि जान पूर्वक शयन करते हुवे को सूर्य उडाग अनान से अस्त हो जावे तो दिन भर (गायत्री) जप करकं उपवास करे सूर्येण ह्याभिनिर्मुक्त ६ यानो द्वितश्च यः। प्रायश्चित्तमकुर्वाणो युतः स्यान्महतनसा ॥२२१॥ आचम्य प्रयतो नित्यमुझे सन्ध्ये समाहितः । शुचौ देशे जपञ्जप्यमुपासीत यथाविधि ॥२२२॥ यदि स्त्री यबमरज. श्रेय. किंचित्यमाचरेत् ।