पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१३४

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द्वितीयाऽध्याय । तत्सर्गमाचरंयुक्तो यत्र नास्य रमेन्मनः ॥२२३॥ धर्मार्थावच्यत श्रेयः कामार्थी धर्म एत्र च । अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थिनिः ।।२२४|| यदि सूर्य के उदय वा प्रति के लमय साजान और प्रायश्चित्त न करं नो महागार से युक्त होता है |२१|| आचमन करके प्रति दिन एकामषित कर दानो मन्यामा का पवित्र देश में यथा विधि जप करता हुआ उपासना करें |सा जिम किसी धर्मका स्त्रीया शदी 'प्राचरण करना हो पार उनने इसका चित्त लगे उम कोभी मन लगाकर फरारशाचा अर्थ येदानां श्रेय कहात है काई काम का भी श्रेय मानने है और अन्धों का मत यह है कि अर्थ ही श्रेय है। (अपना मत मनु बनान है कि तीनो (पुरुषार्थ) त्रिवर्ग श्रेच हैं ।।२४ अाचार्यों ब्राणो मृति पितामृत्तिः प्रजापतेः । माता पृथिव्यामूर्तिम्नु भ्रातास्वामूर्तिरात्मनः ॥२२॥ आचार्यश्च पिता व माता भ्राता च पूर्णजः । नानाप्यवमन्तव्या ब्रामणेन शेिषतः ॥२२६॥ आचार्य वेद की मृति है, और पिता प्रया की मूर्ति है, पृथ्वी की और भ्राता आत्मा की मूर्ति है (इसलिये किसी का अपमान न करें)।२२५।। ब्राह्माण को विशेष करके चाहिये कि प्राचार्य पिता माता और ज्येष्ट भ्राता, इनका अपमान स्वयं मलेशित होने पर भी न करे ।रक्षा यं माता पितरौ क्लेशं सहेने सम्भवे नृणाम् । म तम्यनिष्कतिः शक्या कतु वर्षशतैरपि ॥२२७॥ माना