पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१३५

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१३२ मनुस्मृति भाषानुबाद तयानत्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा । तेष्वेव त्रिपु तुष्टेषु तपा सर्व समाच्यते ।।२२८।' मनुष्यों की उत्पत्ति और पालनादि में जो क्लेश माता पिना । सहते हैं उस क्लेश का बदला सौ वर्षमे भी नहीं हो सकता ।२२७ माता पिता और गुरु का सर्वकाल में नित्य प्रिम करे। इन तीनों की ही प्रसन्नता होने पर सम्पूर्ण तप पूरा होता है ।।२२८॥ तेषां त्रयाणां शुश्रुपा परमं तप उच्यते । न तैरम्पननुज्ञाता धर्ममन्यं समाचरेत् ॥२२६|| त एव हि या लोकास्तएव त्रय पाश्रमाः ।। त एव हि त्रयो वेदास्त एवोक्तास्त्रयोऽग्नयः॥२३०॥ उन तीनों की शुभपा परम तप कहानी है और कुछ अन्य धर्म सनकी आज्ञा के बिना न करे ।।२२।। माता पिता और शुरु ही तीनो लोक हैं और वेही तीनों आश्रम है और वेही तीनो वेद हैं और वे ही तीनो अग्नि हैं ।।२३०॥ पिता नै गाईपत्योऽग्निर्माताग्निर्दक्षिणः गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी ॥२३१॥ त्रिष्वप्रमाधरनैनेषु त्रीलोकान्विजयेद् गृही । दीप्यमानः स्ववपुपा देवव हवि मेदिते ॥२३२॥ (जिनमे) पिता वो गाई पत्याग्नि और माता दक्षिणाग्नि और गुरु आहवनीयाग्नि हैं । ये तीन अग्नि प्रसिद्ध तीन अग्नियोसे बड़े है ।R३|| गृहस्थ इन तीनो के विषय में प्रमाद को त्यागता हुवा (शुन पा करे तो) मानो तीनो लोकों को जीते और अपने शरीर से प्रकाशमान होकर देवताओं के समान सख में प्रसन्न रहे IR३२|| स्मृतः।