पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१३६

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द्वितीयाऽध्याय १३३ इ#. लोकं मातृमक्ता पितृभक्तया तु मध्यमम् । गुशुश्रूाया स्वेवं ब्रह्मलोकं समश्नुते ॥२३३॥ सर्वे तस्याहता धर्मायस्येते त्रय पाहताः । अनादृतास्तु यस्येते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः ॥२३४॥ माता की भक्ति से मानो इस लोक को जीतता है और पिता की भक्ति से मध्य (अन्तरिक्ष) लोक को और ऐसे ही गुरु की शुन पा से ब्रह्म लोकको प्राप्त होता है ।२३शा जिस पुरुष ने माता पिता और गुरु का सत्कार किया उसको सम्पूर्ण धर्म फल देते हैं और जिसके इन तीनोका सकार नहीं होता उसके (ौत स्माच) कर्म सब निष्फल होते है ।।२३४॥ यावत्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यं समाचरेत् । तेष्वेव नित्यं शुश्रूपा कुत्प्रियहिते रतः ॥२३॥ तेपामनुपरोधेन पारव्यं यदाचरेत् । तत्तनिवेदयेच म्यो मनोवचनकर्मभिः ॥२३६॥ इस कारण उनकी प्रीति और हित में परायण होता हुवा जव तक वे जीरें तब तक चाहे और कुछ न करे, किन्तु उनकी नित्य शुनपा करे ।।३५।। माता पिता और गुरु की आज्ञा के अनुसार जो परलोक के निमित्त का करे, सोमन, बचन और कर्म से उन ही से निवेदन करदे ॥२३॥ त्रिवेष्वितिकृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते । एषधर्मः परः साक्षादुपधर्मान्य उच्यते ॥२३७॥ श्रद्दधानः शुभां विधामाददीवावरादपि । .