पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१३७

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१३४ मनुस्मृतिभापानुवाद. अन्त्यादपि परं धर्म स्त्रीरत्नं दुप्चुलादपि ॥२३८}} माता, पिता और गुरु की शुश्रू पा से पुरुष के सम्पूर्ण कर्म पूरे होते हैं। इस कारण यही सानान् परमधर्म है और अन्य उपवमे है ।।२३७॥ श्रद्धायुक्त होता हुवा उत्तम विद्या शूद्र से भी ग्रहण करले और चाण्डाल से भी परम धर्म ग्रहण करले और स्त्रीरत्न अपने से नीचे फुलकी हो उसे भी (विवाह के निमित्त) अङ्गीकार करले ||२३८॥ विपादप्यम ग्राह्य बालादपि सुभाषितम् । अमित्रादपि सवृत्तममेध्यादपि काञ्चनम् ॥२३॥ स्त्रियारत्नान्यथा विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम् । विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सनतः॥२४॥ (विष और अमृत मिले हो तो) विप से अमृत और वालक से भी हित वचन ग्रहण करते । श स भी अच्छा कर्म और अमेध्य मे से भी सुवर्णादि ग्रहण करले ॥३या स्त्री, रत्न, विद्या, धर्म, शौच, अच्छे वचन और अनेक प्रकार की शिल्पविद्या सव से रहण करले ॥२४॥ अब्राह्मणादध्ययनमापकाले विधीयते । अनुवज्या च शुश्रुपा यावदध्ययनं गुरोः ॥२४१॥ . नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वाममात्यन्तिकं वसेत् । ब्राह्मणे चाननूचाने काङ्रङ्गतिमनुत्तमाम् ॥२४२|| आपत्ति समय में ब्राह्मण के बिना (सत्रिय और वैश्य से) भी पढना कहा है और गुरु की आज्ञा मे चलना और शुभ षा जव तक पढे तब तक करे ।२४१॥ ब्राह्मण गुरु न हो तो शिष्य सदा