पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१३८

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द्वितीयाध्याय, १३५ गुरुकुल निवाम न करें । बामण भी माह बंगका पढ़ाने वाला न हो तो मान की इच्छा करता हुआ शिष्य सदा गुगकुल निवान न करे ॥४॥ यदि त्वात्यन्तिकं वासंगचयेन गुंगः कुले । परिचरेदनमाशगंगविमोक्षणान् ॥२४॥ याममाप्नः शरीरस्य यन्तु शुभपने गुरुम् । सगच्छन्यञ्जसा विप्रोत्रमणः सन शाश्वतम् ॥२४॥ जा तुमल में मतावान की गनिहीं होती मावधानीम जो तक जीवे गुरु की शुनपा करना रहे और (ब्रह्मचर्य में) युक्त रहे IPI जो शरीर ममान होने तक गुरु की शुभपा करना है वह ब्राह्मण अनायास मोक्ष की प्राम होता है ।।२४४|| न पूर्व 'गुरवे किञ्चिदपकुर्वीत धर्मविन् । स्नास्यंस्तु गुरुणाज्ञप्तः शक्तचा गुर्वर्थमाहदा२४॥ क्षेत्र हिण्यं गामश्नं छत्रोपानमासनम् । धान्यंशाक च वासांसि गुग्वे प्रीतिमावहेन् ॥२४६।। धर्म का जानने वाला म्नान के अनिरिक्त काई वन्तु गुम मे पूर्व न वर्ते । शुरु की आना ने यथाशक्ति गुरुके लिये जलादि ला देवे ॥२४मा पृथिवी सुवर्ण गो. बाड़ा छन, जुना, बामन अन्न, शाक और बत्र गुग निमित प्रीतिपूर्वक निवेदित करे || प्राचार्य तु खलु प्रति गुरुपुत्रे गुणान्विते । गुरुदारे सपिण्डे वा गुरुषवृत्तिमाचरेत् ।।२४७॥