पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१४०

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  • ओम् .

अथ तृतीयोऽध्यायः पत्रिंशान्दिकं चर्य गुरौ वैदिकं व्रतम् । ताकि पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥१॥ वेदानवोत्य चेदी वा वेदं वापि यथाक्रमम् । अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममात्रिशेन ।।२।। गुरुकुल में (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवंच) वीना बेद छत्तीस वर्ष पर्यन्त अथवा अठारह वर्ष पर्यन्त वा नव वर्ष पर्यन्त पड़े अथवा जितने काल में पढ़ने की शक्ति है, उतने ही काल तक पढे और ब्रह्मचर्य रखले ॥शा कम से तीनों बेड या दो वेट अथवा फफ ही पढ़ कर ब्रह्मचर्य स्खण्डिन न करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे। तं प्रतीत सधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः । सग्विर्ण तम्प अासीनमहयेत्प्रथम गवा ॥३॥ गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तोयथाविधि । उद्बईत द्विजा भार्या सवर्णाः लक्षणान्विताम् ॥४॥ अपने धर्म के अनुसार पिता (आचार्य ) से वेदरूपी दायमाग लाते हुवे लौट कर आये, उस माला से अलंकृत और शय्या पर स्थित हुवे को (पिता) गोदान से पृजित करे ॥३॥ गुरु की आज्ञा से यथाविधि स्नान और समावर्तन करके द्विज अपने वर्ष की शुभ लनों से युकम्त्री से विवाह करे।।४॥ असपिण्डा च या मातुरसगात्रा च या पितुः । .