पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१४४

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तृतीयाऽध्याय वृपलाफेनपीतस्य नि:श्वासापहतस्य च । तस्यां चैव प्रसूतस्य निष्कतिर्न विधीयते ॥१६॥ चतुर्णामपि वर्णानां प्रत्य येह हिताऽहितान । अष्टाविमान्समासेन स्त्रीविशाहानिषित ॥२०॥ । शूग के मुख चुम्बन करने वाले पुरुष की और उसके मुंह की माफ लगने से उस पुरुष और उस से उसन मन्तान की शुद्धि नहीं होती ।।१९।। चारों षणों के परलोक और इम लोक में अच्छे बुरे आठ प्रकार के विवाह को संक्षेप से सुनौ ॥२०॥ ग्रामोदेवस्तथैवापः प्राजापत्यस्तथासुरः । गान्धाराक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः २१॥ 'यो यस्य धर्मो वर्णस्य गुणदोषौ च यस्य यौ ।" तब्दः सर्व प्रवदनामि प्रसवे च गुणाऽगुणन ॥२२॥ ब्राह्म देव र आर्प नाजापत्य ४ आसुर ५ गान्धर्व राक्षस और पाठवां पैशाचा प्रतिनिन्दत है ।।२शा 'जो (विवाह) जिस वर्ण को योग्य है और जो गुण दोष जिसमे है, सो तुमसे कहता हूँ और सन्तान के गुण दोष भी (कहता हूँ) ||२ "शडानुपूर्ध्या विप्रत्य क्षत्रम्य चतुरोधरान् । विद् शत्योस्तु तानेव विद्याद्धान राक्षसान् ॥२३॥ चतुरे ब्राह्मणस्याद्यान्भशस्ताकवयो विन्दु । राक्षस क्षत्रियस्यैकमासुर वैश्यशूटयो ||२४|| 'प्रासंण को क्रमसे (ब्राह्म देव आप प्राजापत्य प्रासुर गन्धर्व) छ. विवाह धर्म्य हैं और क्षत्रिय को (आर्य प्राजापत्य आमुर गान्धर्व) चार विवाह श्रेष्ठ हैं।वैश्य और शूद्रको भी ये ही (चारों)