पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१४६

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तृतीयाऽध्याय अलंकृत्य सुतादानं देवं धर्म प्रचक्षते ॥२८॥ विद्यायुक्त शीलवान वर को बुला कर वस्त्र तथा भूषणादि से सकृत करके कन्यादान करने को 'नाम' विवाह कहते हैं ॥२७॥ (ज्योतिष्टोमादि) यज्ञ में अच्छे प्रकार यज्ञ कराने वाले ऋत्विज वर को भूपण पहिरा कर कन्यादान करने को "देव" विवाह कहते हैं ।।२८॥ एक गोमिथुन कै पा चरादादाय धर्मतः । कन्यादानं विधिवदार्पो धर्मः स उच्यते ॥२६।। सहनौ चरतां धर्ममिति वाचानुभाष्य च । कन्यापदानमभ्यर्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः ॥३०॥ एक गौ और एक बैल अथवा दो गौ और दो बैल (वज्ञादि के निमित्त अथवा कन्या को देने के निमित्त) वरसे लेकर शास्त्र में कहे प्रकार से कन्यादान करने को "आर्ष विवाह करते हैं (आगे ५३ वे श्लोक में कहेंगे कि यह सब का मत नहीं है और बुरा है) ॥२९॥ 'तुम दोनों साथ धर्म के आचरण करो, कन्यादान के समय वाणी से यहप्रार्थना करके जो सकारपूर्वक कन्यादान किया जाता है वह प्राजापत्य विवाह है ॥३०॥ ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्वा कन्याय चैत्र शक्तिः । कन्यापदानं स्वाच्छन्यादासुराधर्म उच्यते ॥३१॥ इच्छयान्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च । गांधः स तु विनेया मैथुन्यः कामसंभवः ॥३२॥ वर के माता पिता आदि और कन्या को यथाशक्ति धन देकर जो इच्छापूर्वक कन्या का देना है वह "आसुर" विवाह कहा जाता