पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१४७

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१४४ मनुस्मृति भाषानुवाद है ।।३२॥ अपनी इच्छा रो कन्या और घर का मिलाप मात्र होना, यह कामियों का मैशुन्य 'गांधर्व विवाह ' जानना चाहिये ॥३२॥ हत्या छिया च मिन्याचक्रोशन्तीरुदनीगृहात् । असम कन्याहरणं राक्षसे विधिरुच्यते ॥३३॥ सुप्ता मचा प्रमचा वा रहेायत्रोपगच्छति । स पापिष्टो विवाहाना पैशाचश्चाप्टमाधमः ॥३४॥ विनाश करके हस्तपादादि पर चोट मारके, मकान आदि फोड कं, गानो देती और रोती हुई कन्या का हट से लेजाना राक्षस विवाह कहाना है ।।३।। सोती हुई और नशा पीहुई और प्रमादिनी का जहां मनुष्य न हों विषय करके प्राप्त होना यह पाप का मूल विवाहा मे अधम ८ मा "पैशाच" विवाह है ॥३४॥ अदिरेव द्विजाग्रयाणा कन्यादानं विशिष्यते । वर्णानामितरेतरकाम्यया ॥३॥ "यो यस्यैपा वियाहाना मनुना कीर्तितोगुणः । सर्व शृणुत तं विप्राः सर्व कीर्तयतो मम ॥३६॥" ब्राह्मणो को जलसे ही कन्यादान करना श्रेष्ठ है और क्षत्रिय आदिवों का परस्पर की इन्चामात्र से कन्यागन होता है (जल का नियम नाई) ||३५|| इन विवाहा मे जो गुण जिस विवाह का मनुन कहाहै सो सम्पूर्ण दे ग्रामणो मुझसे सब सुनों" (यह भूगु ने ब्राह्मणो से कहा है) ॥३६॥ दश पूर्वान्परान्नश्यानात्मानं चैकविंशकम् । वानीपुत्रः सुकृतकृन्मोचयेदेनसः पितन ॥३७॥ देवादाज; सुतश्चैव सप्त सप्त परावरान् । इतरेषां तु €