पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीयाऽध्याय १४५ - आषाढाजः सुतस्त्रीस्त्रीन्पटपटकायाढजः सुतः ॥३८॥ माझविवाह की कन्या का पुत्र जो अच्छे कर्म करने वाला होवे तो दश पीढ़ी प्रथम (अपने जन्म से पहली) और दश पीढ़ी पर (पुत्रादि) तथा अपने को इस प्रकार इक्कीस को (अपयशरूपी) पाप से छुड़ाता है ॥३७॥ और दैव विवाह की स्त्री का पुत्र सात पीढ़ी पहली और सात अगली तथा ऋषि विवाह की स्त्री का पुत्र तीन पीढ़ी पहिली और तीन अगली और प्राजापात्य विराह की स्त्री का पुत्र छ. पीढ़ी पहिली छः अगली और अपने का (अपपरा) पाप से छुटाता है ।। (ये दो श्लोक प्रामाहि चार विवाहों की प्रशंसा के हैं । यथार्य में जब किसी कुल मे कोई धर्मात्मा प्रतिष्ठित पुरुष उत्पन्न होता है तो अगले पिछलों के नाम पर कोई बट्टा भी लगा हो तो उससे सव दब जाता है । और उत्तम विवाह उत्तम सन्तान का हेतु है ही। इसलिये प्राम आदि ४ विवाहो का न्यूनाधिक उत्तमत्व दिखाया गया है) ॥३॥ प्रामादिषु विवाहेषु चतुर्वेषानुपूर्वशः । ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा बायन्ते शिष्टसम्मता ॥३६॥ रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्ता यशस्विनः । पर्याप्तभोगा धर्मिष्टा जीवन्त च शतं समाः ॥४०॥ ब्राह्मादि चार विवाहो में ही क्रम से ऐसे पुत्र होते हैं जो ब्रह्मतेजस्वी और श्रेष्ठ मनुष्यों के प्यारे ॥३९।। रूपवान्, पराक्रमी, गुणवान धनवान यश वाले, पुष्कल भाग वाले. धर्मात्मा और १०० वर्ष की आयु वाले होते हैं ॥४०॥ १९