पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१४९

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मनुस्मृति भाषानुवाद इतरेषु तु शिष्टेषु नशंसानृतवादिनः । जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विपः सुताः ॥४१॥ अनिन्दितः स्त्रीविबाहेरनिन्या भवति प्रना । निन्दितर्निन्दिता नणां तस्मानिन्यान्विवर्जयेत् ।।४।। शेष दुष्ट विवाह के सन्तान निर्लज्ज, मूठ बोलने वाले. ब्राह्म-- धर्म द्वेपी (ब्राहाणो व धर्मा के शत्र) उत्पन्न होने हैं ॥४१॥ अन्ने स्त्री विकारों में अच्छी और बुरे विवाहो से बुरी सन्तान मनुष्यों के होती है। इस कारण निन्दित विवाहों का त्याग करे ||४|| "पाणिग्रहणस कार' मवर्णासपश्यिते । असवर्णाम्चय यो विनिमहाकर्मणि ॥४३शा शर' पत्रिश्या ग्राह्य प्रतोदो वैश्यकन्यया । वसनम्य दशा ग्राह्या शूट्योत्कृष्टवेदने ॥४४॥" पाणिग्रहण संस्कार अपने वर्ण की स्त्री के साथ कहा है और वर्ण से दूसरे वर्ण की स्त्रियों में विवाह कर्म में यह विधि जामनी चाहियेः-॥४३॥ उत्तम वर्ण का पाप हीन वर्ण की कन्या से विवाह करे तो क्षत्रिय की कन्या को वाण को एक सिरा और वैश्य की कन्या को सांटे का एक सिरा और शुक्र की कन्या को कपडे का एक सिरा पकडना चाहिये ॥४४|| (४३ १४४ श्लोकों में स्वयं ही कहते हैं कि यह पाणिग्रहण संस्कार नहीं हैं, जो असवर्णा के माथ हो। और असवर्ण के साथ विवाह करना पूर्व श्लोक ४ के विरुद्ध होने से त्याज्य भी है) ऋतुकालाभिगामी स्यात्वहारनिरतः सदा ।, पर्ववर्ज ब्रजेच्चैनां तव्रता निकाम्यया ॥४५॥ "