पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शीयाऽध्याय वैकर्मणि युक्तोहि विभत्तीदं चराचरम् ।।७।। अग्नी प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टि परन्न ततः प्रजाः ॥७॥ वेदाध्ययन और अग्निहोत्र में सर्वदा युक्त रहे । जव । होमकर्म में युक्त है, यह चराचर का पोपण करता है । क्यों कि- ||५|| अग्नि में डाली बाहुति आदित्य का पहुंचती है और सूर्य से पृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न, श्रम में प्रजा होती है। (इस से जो अग्निहोत्र करना है, वह सम्पूर्ण प्रजा का पालन करता है, पथावायू समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः । तथागृहस्थमाश्रित्य वर्चन्त सर्व प्राथमाः 11७७॥ यस्मात्त्रयोप्याथमिणो ज्ञानेनामन चान्वहस् । गृहस्थेनैव धार्यन्त तस्माज्ज्येष्ठाश्रमागृही ||७|| जैसे सम्पूर्ण जीव (प्राणी ) वायु के आनय से जीते हैं, वैसे गृहस्य के आभय ( सहारे) से सब आश्रम चलते हैं 1 || जिम कारण तीनों आमम वालों का मान और अन्न से गृहस्थ ही प्रति दिन धारण करता है, इससे गृहानमी बड़ा है sell म संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता । मुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्वलेन्द्रियैः ॥७६|| ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा । आशासते कुटुम्बिभ्यस्तम्मा कार्य विजानता ||८०|| जो दुर्वल इन्द्रिय वालों से धारण नहीं किया जा सकता, ma