पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१५७

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मनुस्मृति भाषानुवाद (गृहस्थाश्रम) इस लोक में मुखको इच्छा करने वाले तथा अक्षय सुख (मोक्ष) की इच्छा करने वाले का प्रयल से धारण करना चाहिये ॥७९॥ क्यों कि ऋषि, पितर, देव, अन्य जीव तथा अतिथिसब कुटुम्पियो से आशा करते हैं, इस से इन के लिये जानते हुवे को (५ यज्ञ) करने चाहिये ।।८।। स्वाध्यायेनार्चयेतपीन्हामदेवान्यथाविधि । पितन् श्रावि नानानभूतानि बलिकर्मणा ।।८१॥ कुर्यादहरहा श्राद्धमन्नायेनेादकेन वा। पयामूलफलैर्वापि पितृम्यः प्रीतिमावान् ॥८२|| स्वाध्याय से ऋषियों , होम से देवताओ, श्राद्धों से पितरों: अन्न से मनुष्यों तथा बलिकर्म मे अन्य भूतों का सत्कृत करे ।८१॥ पितरों से प्रीति चाहने वाला, अन्नादि, दुग्ध, मूल, फल और जल से प्रतिदिन श्राद्ध करे। एकमप्याशयेविन पित्रय पाञ्चयज्ञिके । न चैवात्राशयत्किञ्चिद्व श्वदेवं प्रतिद्विजम् ।।८३॥ पैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्य ग्नौ विधिपूर्णकम् । आम्या कुर्याबदाम्या ब्राह्मणो होममन्वहम् ॥४॥ पञ्चमहाय सम्बन्धी पितृयज्ञनिमित्त (साक्षात् पिता आदि न हो तो चाहे पितृत्वगुणयुक्त छान्दोग्य मे कहे अनुसार २४ वर्ष ब्रह्मचर्य धारण करने वाला वसुसंझक ब्रह्मचारी जिस की २८४ वे श्लोक में वसु और पितृसंना करेंगे, उस प्रकार के) एक ब्राह्मण को भी भोजन करा देवे । परन्तु इस वैश्वदेव के स्थान में किसी को भोजन न करावे ॥८॥ गृह्य अग्नि में सिद्ध वैश्वदेव का इन