पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१५९

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मनुस्मृति भाषानुवार वास्तु के शिर' प्रदेश छत मे श्री के लिये मकान के पैर भूमि मे भद्रकाली के लिये, श्रामण और वानोपति के लिये घर के बीच, मे ||८९॥ विश्वदेवों के लिये आकाश में दिवाचर प्राणी तथा रात्रिचरों के लिये भी आकाश में ।।९०॥ पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं मर्वात्मभूतये । पितृम्यो बलिशेपं तु सर्व दक्षिणतो हरेत् ॥११॥ मकान के पीछे सर्वात्मभूति के लिये और शेप बलि पित को दक्षिण में देवे ।।९।। (८७ से ११ तक ५ श्लाकों में वैश्वदेव बलि का विधान या रीति है । वैश्वदेव शब्द विश्वदेवाः से बना है. जिसका अर्थ यह है कि सब देवों वा प्राणी, प्राणी रूप जगत के पदार्थों को अपने भोजन से माग देना। क्यों कि श्लोक ८१ मे इसका नामभूतबलि कह आये हैं और श्लोक ६८ में गृहथ का हिसा लगना कह आय हैं कि चूल्हा चक्की आदि से काम लेते हुए गृहस्थ पुरुप कुछ न कुछ जगत् की हानि भी करता ही है । उमीके प्रायश्चित्ताय उस को सब जगत् के उपकाररूप वैश्वदेव यलि का विधान है। ८४ । ८५1८६ वें श्लोकों में आहुतियों का चपन है, वे थाहुति उस ३ देवता दिव्य पदार्थ के उपकारार्थ दी जाती हैं । उस र देवता (अग्नि, साम आदि में जा २ दिव्य सामर्थ्य है, वह २ दिव्य सामर्थ्य परमात्मा में सर्वोपरि है। इस लिये कोई प्राचार्य परमात्मा की प्रसन्नता के लिये इस होम को मानते हैं। और भिन्न २ देवता के पक्ष में १ अग्नि । २ साम। ३ अग्निपोम | ४ विश्वेदेवाः = सब देवता । ५ धन्वन्तरि रोग निवारक । ६ कुहू = अमावस्या में चन्द्रोदय होने से विशेष दिन मे विशेष । ७ अनुमति -पौर्णिमा मे भी उक्त रीति से । ८ प्रजापति- काम । ९ घुलोक और भूमिलाक । १० स्विष्टकृत् अग्निः । ये सब