पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६०

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तृतीयाध्याय 'पदार्थ वायु के समान सर्वत्र फैले हुए हैं और मनुष्यादि के शरीर भी इन्हीं स बने हैं और बाह्य जगन् में जब हवन से इनकी उत्तम अवस्था रहती है तब शरीर देवता जो सूक्ष्म तत्व वा अंश है वे भी भले प्रकार आप्यायित रहते है। जैसे बाहर का वायु शुद्ध पवित्र हो तो शरीरस्थ प्राणादि भी स्वस्थ रहते हैं। वैसे ही बाह्य जगत् के व्याप्त द्रव्य अच्छे रहै, तभी मनुष्यों के भीतरी त व भी परिष्कृत रहते हैं। इस लिये इन मन्त्री से होम का तात्पर्य उन उन द्रव्यों की हष्टि पुष्टि आदि स है। और आगे जो बलि लिखी है उन २ को भी उस २ देवता - तत्त्व वा द्रव्य की दृष्टि पुष्टि और शुद्धि को निमित्त मान कर (निमित्तार्थ मे ही इन श्लोकों की सामी विभक्ति हैं, न कि अधिकरण में इस लिय) द्वार आदि स्थानों में भाग रखना आवश्यक नहीं। किन्तु पत्तल पर रखकर पीके श्लोक ८४ के अनुमार गृह्य अग्नि चुल्हे से निकाल कर उस मे चढादे। अब यह जानना शेष रहा कि इन २ इंद्रादि का उस उस पूर्व दिशा श्रादि से , या सम्बन्ध है । यद्यपि अपनी बुद्धि के अनुसार हम लिखते हैं और हम से पूर्व के टीकाकारों ने भी अपनी २ समझ के अनुसार लिम्बा है परन्तु जितना हम लिखते हैं वा अन्यों ने लिखा है उम से पूरा २ सन्तोष न तो हम को है और न हम यह आशा करते हैं कि अन्यों को होगा । परन्तु हम इस सम्बन्ध को यह निश्चय विश्वास करते हैं कि यह आधुनिक कल्पना नहीं है किन्तु बहुत कुछ यह सम्बन्ध वेदों में भी देखा जाता है। उदाहरण के लिये सन्ध्या में मनसापरिक्रमा के मन्त्री को देखिये जिन मे से पूर्वादि दिशात्रों के साथ विशेष नाम एक प्रकार के क्रम से आये हैं, जो वेदों के अन्य मन्त्रों में भी उस कम से प्राय. पाये जाते हैं। इस लिये हम अनुमान करते है कि इंद्र-का पूर्व दिशा से, यम का दक्षिण से, वरुण का पश्चिम से +