पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६१

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मनुस्मृति भाषानुपाइ सोम का उचर से वायु का (द्वार में होकर आने से ) र से, जल का जल से सामान्, वनस्पति का (काष्ठमयानन्य) मूसल उल्खल से ऊपर का लक्ष्मी से, पृथिवी का भद्रकाल- पृथ्वी से. वेदवेत्ता पुरोहितादि और गृहपति का गृहमध्य से और सब सामान्य देवताओं और दिन में तथा रात्रि में विचरने वाले प्राणियों का प्रकाश से कुछ न कुत्र विशेष सम्बन्ध है। सर्वात्मभूतिका पृष्ट से दया पितरों का दक्षिण से भी । जैसे इन्द्र वरुण यमादि तत्वों के विशेष नाम हैं वैसे ही यहां पति- वैश्वदेव में पितर पद का भी एक प्रकार के आकाशगत तन्नों से ही अभिप्राय है । माता पिता आदि गुरुजनों का तो पृथक् पितृया विहित ही है ।। वायुकोण में जल भरा घड़ा रखना वहीं स्नानगृह और मोरी रखना, अग्नि कोण में बनापति शाकादि ऊखली मूसल आदि रखना ईशानकोण में लक्ष्मी-न्धन, नैऋत्यमे स्त्रीपुरोहितादि वेदपाठियों वा वेदपाठ और गृहपतिका मुख्यत. वीचमे यज्ञशाला । विश्वेदेवा से विशेषत अग्नि वायु सूर्यका प्रायः आकाश दिवाचर मक्खी आदि और रात्रिचर देश मशकादि जो निकृष्ट मलिन कारणसे उत्पन्न होतेहैं-उनका विरुद्ध धूमसे अपने अपरको उड्नेसे आकाश सब प्रकार के अन्नादि रखने का मकान के पुत्र माग से सम्बन्ध रखना मालकता है इत्यादि विचार भी चिन्तनीय है। निदान यह सर्वभूत बलि का तात्पर्य मात्र तो (अहरहर्यलिमिने), इन-मादि अथर्व १९ । १७ और (पुनन्तु विस्थाभूतानि०) इत्यादि यजु १९ १३९ वेदमन्त्रों में भी पाश जाता है कि प्रतिदिन सब भूतों की बलि दे । परन्तु पूर्वादि दिशों के साथ का भेद और (सानुगायेन्द्रायनम.) इत्यादि मन्त्र बेदमन्त्र नहीं हैं किन्तु गृह्यसूत्रो और स्मृतिक हैं । इसलिये यह कर्म स्मात्त वा गृह कहावा है और गृहस्थ का ही कर्तव्य है ।। हम लोग बहुत काल तक दशा प्रादि