पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६३

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मनुस्मृति भाषानुवाद वेदतत्त्वार्थविदुपे बामणायोपपादयेत् ॥१६॥ जिस पुण्य का फल गुरु का गादान करने से (शिष्य) पाता है वही फज (प्रश्नचारीका) मिक्षा देनेसे द्विज गृहस्थ पानाहै ||५|| मिक्षा वा जलपात्र मात्र ही विधिपूर्वक वेदतस्वार्थ जानन वाले ब्राह्मण को सत्कार करके देवे ॥९॥ नश्यन्ति हव्यकव्यानि नराणामविजानताम् । भस्मीभूतेषु विप्रषु माहादसानि दातृभिः || विधातपः समृद्धेषु हुतं विप्रमुखाग्निषु । निस्तारयति दुर्गाच महतरक्षेत्र किन्विपात् ॥81 जो भस्मीभूत (जैसे अहार में सं अग्नि निकल कर निस्तेज भस्म स जाता है ऐसे ही ब्रह्मवर्चसादि हीन भस्मरूप कथनमात्र कं जा ब्राह्मण हैं उन) ब्राह्मणों को जो दाता लोग अज्ञान से दान करते है उनके हिये हन्य कव्ध सब नष्ट जाते हैं ॥९७ा विद्या और तप से समृद्ध विप्रो के मुखरूप अग्नि में हवन करना कठिनाई और बड़े पाप से बचाता है ॥१८॥ संप्राप्ताय सतिथो प्रदद्यादासनादके । अन्न चैव यथाशक्ति सत्कृत्य विधिपूर्वकम् IIBEll शिलानप्युम्छतो नित्यं पञ्चाग्नीनपि जुलतः । सर्व सुकृतमादचे ब्राह्मणोऽनर्चिताबसन् ॥१०॥ आये हुवे अतिथि के लिये यथाशक्ति प्रासन, जल और अन्न सत्कृत करके विधिपूर्वक देवे ॥१९॥ नित्य शिल (खेत मे पीछे से रहे हुये अनाज के दानो) को बीन कर जीवन करने वालें और (आइवनीप्र, गाईपत्य, दक्षिण, श्रौत आवसध्य) पांच अग्नि में