पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६४

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तृतीयाऽध्याय १६१ होम करने वाले के भी उपार्जित सब पुरयों को बिना पूजन किया हुआ प्राण (अतिथि) ले जाता है ।।१०।। तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता । एतान्यपि सतां गेहे नाच्छियन्ते कदाचन ॥१०११॥ एकरात्रं तु निवसम्मतिथि मणः स्मृतः । अनित्यं हि स्थितो यस्माचस्मादनिधिरुज्यते ॥१०२|| (अन्न न हो तो) तणामन, विभाग के लिये स्थान, जल और चौवे अन्या बोजना, ये चार बातें तो सन्पुरुषों के कभी कम रहनी ही नहीं ॥१० एकरात्रि रहने वाला प्रामण अतिथि होता है, क्योंकि नित्य नहीं रहता, इसी से प्रनिधि कहाता है ।।१२।। नैकग्रामीणमतिथि विप्न साहतिकं तथा । उपस्थितं गृहे विद्यादार्या यत्राग्नयो तपि वा ॥१०॥ उपासते ये गृहम्याः परपाकमबुद्धयः । तेन ते प्रत्य पशुतां वजन्त्यमानिदायिनाम् ॥१०॥ (उसी) एक ग्राम में रहने वाले सहा-मामी और मार्या तथा अग्नि से युक्त गृहस्व में रहने वाले (वैश्वदेव काल में), उपस्थित वित्र की अतिथि न जाने ॥१०शा जो निद्धि गृहस्थ (भाजन के लालच से) दूसरे के अन्न का सहारा देखते हैं, उससे वे मरने पर अनादि देने वाले के पशु बनते है ।।१०।। अप्रणोद्योतिथिः सायं सूर्योदोगृहमेधिना । काले प्राप्तस्वकांजेवा नास्यानश्नन्गृहेचसन् ॥१०॥ न में स्वयं तदरनीयादतिथिं यत्र मोजयेत् ।