पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६५

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१६२ मनुस्मृति भाषानुषा धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वयं वाऽतिथिपूजनम् ॥१०॥ सायशाल के सूर्य छिपने पर भोजन के समय अतिथि प्राप्त हो वा बेसमय (जवकि भोजन हो चुका हो) प्राप्त हो तो भी उसके भूना घर से न भेजे (अर्थात गृहस्थ यह न कहे कि चले जाओ) ॥१०॥ जो वस्तु अतिथि को भोजनार्थ न दे उसे श्राप भी भोजन न करे । यह अतिथि पूजन धन्य धनहिवार्थ, यश आयु तथा स्वर्ग का देने वाला है ।॥१०॥ आसनावसथौ शव्यामनुव्रज्यामुपासनाम् 1 उत्तमेधूनम कुर्यादीने हीनं समे समम् ॥१०७॥ - नैश्वदेवे तु निचे यान्योऽतिथिराव्रजेत् तस्याप्यन्न यथाशक्ति प्रदान बलिं हरेत् ॥१०८11- आसन और जगह तथा शय्या और अनुवन्या (विदाई) तथा उपासना (परदली) ये सब उत्तमों को उत्तम और होनों को हीन और समों को समानता से करे ॥१०७|| वैश्वदेव के हो चुकने पर यदि दूसरा अतिथि आजावे तो उस को भी यथाशक्ति अन्न देवे, बलिहरण-पूरी पत्तल (चाहे) न करे ॥१०॥ न भोजनार्थ स्वे विश्रा कूलगोत्रे निवेदयेत् । भोजनार्थे हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः।।१०।। न बामणस्य स्वतिथिगृ है राजन्य उच्यते । वैश्यशूद्री सखा चैव ज्ञातया गुरुरेव च ॥११०॥ भोजन के लिये विष अपना फुल गोत्र न कहे और जो भोजन के लिये उन्हें कहे तो उसका विद्वान् लोग बान्ताशी-गलन खाने