पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६६

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तृतीयाऽध्याय बाला कहते हैं (क्योंकि वह टुकड़ों के लिये बड़ों का सहारा लेता है) ||१०|| आमण के घर क्षत्रिय अतिथि नहीं होता और वैश्य, राम सखा तथा गुरु भी अतिथि नहीं समझने चाहियें ॥११॥ यदि वविविधर्मेण क्षत्रियो गृहमाग्रजेत् । मुक्तवत्सूक्तविन' काम तमपि भोजयेत् ॥१११॥ वैश्यशूद्रावपि प्राप्ती कुटुम्बेऽतिथिधर्मिणी। भोजयेत्सह भृत्यस्तावानृशंस्य प्रयोजयन् ॥११२॥ यदि अतिथि धर्म से क्षत्रिय भी उक्त मामणों के भोजन करते हुवे गृह पर भाजावे तो उसका भी चाहे भोजन करा देवे ॥११॥ और यदि वैश्य शूद्र भी अतिथि होकर प्राप्त हो तो कुटुम्ब में भृत्यों के सहित उन पर कृपा करता हुभा भोजन करावे ।।११।। इतरानपि सख्यादीन्संग्रीत्या गृहमागतान् । सत्कृत्यान यथाशक्ति भोजयेत्सह भार्यया॥११॥ सुवासिनीः कुमारीश्च रोगिणो गर्भिणी स्त्रिय' । अतिथिम्योऽमएनेतान्मोजयेदविचारयन् ॥११४॥ चत्रियादि के अतिरिक्त मित्रादि प्रीति करके घर भाजावे तो उनको भी यथाशक्ति सत्कार करकं भार्या के सहित भोजन करावे ॥११॥ सुवासिनी (जिनका अभी विवाह हुआ हो), कुमारी रोगी लोग तथा गर्भवती स्त्री इनको अतिथि के पहिले ही विना विचार भोजन करा देवे ॥१४॥ अदत्त्वा तु य एतेभ्यः पूर्व मुक्त विचक्षणः । समुचाना न जानाति स्वगृर्जग्धिमात्मनः ॥११॥