पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृति भाषानुवाद भुत्तावत्स्वध विषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि । भुजीयानां बतः पचाटवशिष्टं तु दम्पती । ११६॥. जो मर्श इनको बिना हिये पहिले भोजन करता है वह वहीं जानता है कि कुन और गीघोंस अपना भक्ष्य (मरपके अनन्तर) होगा ||१७|| ब्राह्मण और पाप्यवर्ग ये सब भोजन कर चुके तत्पश्चात को को (गृहस्थ) आप और स्त्री भोजन करें ॥१६॥ देवानपीन्मनुष्यांश्च पिनगृह्याश्च देवताः । पूजयित्वा ततः पश्चाद्गृहस्थः शेपमुग्भवेत् ॥११७॥ अधम केवलं भुते या पत्त्यात्मकारणात् । यज्ञशिष्टाशन ह्य तन्मनामन्न विधीयते ॥११॥ देव. ऋषि, मनुष्य पिनर और गृह्मोक विश्वेदेवाः. इन सबका सत्कृत करके पश्चात गृहन्थ शेष अन्न का भोजन करने वाला है। ॥११॥ जा कयल अपने लिये अन्न पकाता है वह निरा पाप खाना है और जो यज्ञादि से शेष भाजन है, वह सज्जनों का भोजन है ।।११८॥ राजविकनानकगुरून्प्रियश्वशुरमातुलान् । अहयेन्मधुपण परिसंवत्सरात्पुनः ॥११॥ राजा च श्रोत्रियश्चैव यज्ञकर्मण्युपस्थितौ । मधुपर्केख मंपूज्यौ न त्वयज्ञ इति स्थितिः ॥१०॥ राजा, ऋत्विज, म्नानक, गुरु. मित्र, श्वसुर, मामा एक वर्ष के ऊपर फिर भावें तो फिरभी इनका मधुपर्व से पूजन करे ॥१५॥ राजा और स्नातक यन कर्म में प्राप्त हो तो मधुपर्क से पूज्य हैं बिना यन्त्र के नहीं ॥१२०॥