पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६८

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द्वितीयाऽभ्याय I 1 . सायं वनस्य सिद्धस्य पत्न्यमन्त्रं वलि हरेत् । वैसदेनं हि नामैतत्सायं प्रातर्विधीयते ॥१२॥ सायकाल में रसाई होने पर स्त्री विना मंत्र बलि करे, क्योकि रखदेव नाम कृत्यका गृहस्थ को सायं प्रातः विधान कियाहै ।१२१॥ "पितृयतु निर्वत्वं विप्रश्चन्तयेऽम्निमान् । पिएहान्याहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्मासानुमासिकम् ।।१२२|| "अग्निहोत्री श्रमावस्या में पितृयज्ञ करके 'पिण्डान्वाइार्यक' श्राद्ध प्रति मास किया करे।।" (यहां श्लोक १२२ मे श्लोक १६९ तक "मृतकाद्ध' का वर्णन है। हमारी सम्मति में यह सभी प्रकरण प्रक्षित है । १७० मे उत्तम प्रती ब्राह्मणादि की प्रशंसा और विरुद्धो की निन्ना का प्रकरण कहेंगे जो मृतपितरो से सम्बद्ध नहीं है। इसलिये उनमें १२१ चे श्लोक का ठीक सम्बन्ध मिल जाता है। इन श्लोका को प्रक्षिप्त मानन के हेतु ये भी हैं।-१-इन श्लाको के संस्कृत की शैली मनु के सी नहीं; किन्नु पुराणों के सी है । २-यह मासिक श्राद्ध का (जा अमावस्या में है) विधान है । जय नित्य श्राद्ध कह चुके तत्र अमावस्या भी भागई, इसलिये व्यर्थ है। ३-श्लोक १२३ में आमिष मांस से इसका विधान है जो देव ऋपि पितरोंका भोजन नहीं, किन्तु 'यतरत. पिशाचाने मद्यमांम सुरासवम" (मनु १११ ९५) मद्यमांसादि यक्ष राक्षसादि का भोजन है। कोई लोग 'आमिष पद से भाज्यवस्तु' का ग्रहण करने हैं और जीवतो का ही श्राद्ध वर्णिन कहते हैं, परन्तु मे गतिथि आदि ६ टीकाकार आमिष मांस ही लिखते हैं। ४ और रामचन्द्र टीकाकार ने इसके आगे एक यह श्लोक और लिख कर व्याख्या की है कि-