पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मनुस्मृतिभाषानुवाद . [न निर्वापति यः श्राद्धं अमीतपितृका द्विजः । इन्दुक्षये मासि मासि प्रायश्चित्ती भवेत्त सः॥] अर्थात् जिस द्विज के माता पिता मर गये हों और प्रतिमास अमावस्या को श्राद्ध न करे यह प्रायश्चित्ती होता है। इससे यह मालकता है कि यह प्रकरण मृतक श्राद्ध का ही है। यह श्लोक अन्य ५ टीकाकारों ने नहीं लिखा न ३० पुरतकों में से एक पुस्तक के अतिरिक्त अन्य पुस्तकों में है। इससे पाया जाता है कि रामचन्द्र सव से पिछले टीकाकार हैं उन्हीं के समय में यह मिला हुवा था। पूर्व ५ टीकाकारों के समय में नहीं था। १२४ वें श्लोक का पिर यह कहना कि जिन अन्नो से जैसे और जितने ब्राह्मण भोजनकराने है उन्हें कहेंगे,व्यर्थ है क्योकि ११३ में मांससे जिमाना कह चुके हैं। ५-पितृनिमित्त में ब्राह्मणों की गिनती का विधान भी मृतकाद्ध का ही सूचक है। ६-१२७ में में सष्ट ही इसे प्रेत कृत्या लिखा है। ७-१३६ ३ में पण्डित के पुत्र मूर्ख प्रामण की उत्तमता और मूल के पुत्र विद्वान की भी निन्दा अन्याय और पक्षपातपूर्ण है। ८-१४६ वे.में एक प्राक्षण के भोजन से ७ पुरुषाओं की असम्भव दृप्ति वर्णित है । ९-१४९ वें में दैवकर्म में ब्राह्मण की परीक्षा न करना अन्याय है। १०-१५० वा श्लोक सष्ट मनु का नहीं, अन्यक्त है । ११-१५२ ३ में मांस बेचने वाले प्राह्मण को भोजन न कराना कहा है। इससे जाना जाता है कि उस श्लोक के वनते समय प्रामण मास खाना क्या बेचने का भी पेशा करने लगे थे। १२-१५३ से १६७ तक जिन ब्राह्मणों को श्राद्ध मे वर्जित किया है उनमें बहुतो के ऐसे कर्म कहे हैं जो श्राद्ध मे ही क्या किसी भी कार्य मे सत्कार योग्य नहीं किन्तु राजदण्डके योग्य है) ॥१२॥