पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१७०

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द्वितीयाऽध्याय १६७ । "पितृणां मासिक श्राद्धमन्याहार्य विदुर्बुधाः । तच्चामिपेण कत्तच्यं प्रशस्न समंततः ॥१२३॥ तत्र ये भोजनीयाः स्युर्येच वो द्विजोत्तमा । यावन्तश्चैव यैश्चान्नस्तान्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥१२॥ द्वौ वे पितृकायें त्रीनेकैकमुभयत्र वा। भोजयेत्सुसमू- खोऽपि न प्रसज्जेत विस्तरे ॥१२॥ सकियां देशकालौ च शौचं धामणसंपदः । पञ्चैतान्वितरोहन्ति तस्मान्नेहेत विस्तरम् ॥१२६॥ प्रथिता प्रेतकृत्यैया पिश्यं नाम विषुतये । तस्मिन्युक्त- स्वैति नित्य मेत्तकृपैव लौकिकी ॥१२॥ श्रोत्रियापैव देयानि हन्यकव्यानि दातृभिः । अहत्तमाय विप्राय तरी दत्त महाफलम् ॥१२वा एकमपि विद्वांस देवे पित्र्ये च भोजयेत् । पुष्कलं फल- माप्नोति नाऽमन्त्रज्ञान्वहूनपि ।।१२९॥ दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणं वेदपारगम् । तीर्थ तद्धन्यकव्यानां प्रदाने सोऽतिथि. स्मृतः।१३०॥ "पितरों के मासिक श्राद्ध को परिडत अन्वाहार्य जानते हैं उसका भादविहित सर्वथा अच्छे मांस से करे ।।१२३।। उस श्राद्ध में जो भोजन योग्य ब्राक्षश हैं और जो त्याज्य हैं और जितने और जिस अन्नले जिमाने चाहियें यह सम्पूर्ण मैं आगे कहूंगा||१२४|| देवनाद्ध में दो और पितृश्राद्ध में तीन ब्राह्मण वा देवनाद्ध मे और पितृश्राद्ध मे एक एक को भोजन करावे। अच्छा समृद्ध (यजमान) भ विस्तार न करे ।।१२५।। अच्छी पूजा,देश काल, पवित्रताऔर श्राद्धोक गुण वाले ब्राझण, इन पांचो को विस्तार नष्ट करता है, 'इससे विस्तार न करे ।।१२क्षा यह जो पितृकर्म है, सो वकृत्या विख्यात है । श्रमावस्या के दिन उसमें युक्त होने वाला पुरुष नित्य के लौकिक श्राद्धाक फल को प्राप्त होता है ।।१२७॥ देने वाले