पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१७२

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तृतीयाऽध्याय १६९ इहैवास्ते तु सा लोके गौरविवेकवेश्मनि ॥१४॥ यथेरिणे वीज- मुप्त्वा न वंशा लभते फलम् । तथाऽनुचे हविर्दत्वा न दाता लमते फलम् ।।१४ा नातन्त्रतिमहीतच कुरुने फलभागिन । विदुषे दक्षिणां दत्वा विधिवप्रेत्य चेहं च ॥१४ा काम श्राद्धेऽचयन्मित्रं नाभिरूपमपि वरिम् । द्विपना हि इविभुक्तं भवति प्रेत्य निष्फलम् ||१४॥ यत्नेन मोजयेच्छाद्वे वचं वेदपारगम् । शाखान्तगम- बाध्वयं छन्दोग तु समाप्तिकम् ॥१४५। एषामन्यतमा यम्य मुखीत श्राद्धमर्चितः। पितॄणां सम्य वृभिः स्याच्छाश्वती साप्तपौरुषी ।१४६ "जिस श्राद्ध में वेद के न जानने वाले दशलक्ष ब्राह्मण भोजन करते हो. वेद का जानने वाला सन्तुष्ट हो तो वह एक उन मत्र के बरावर फल देता है ॥१३॥ विद्या से उन्कूटको इन्य व कन्य देना चाहिये क्यों कि रक्त से भरे हुये हाथ रक्त ही से शुद्ध नहीं होत ॥१२॥ वेद का न जानने वाला जितने ग्रास हव्य कव्य के खावा है उतने ही मरने पर जलते हुवे शूल और लोह के गोले खाता है.॥१३॥ काई दिन आत्मनानपरायण होते हैं और (* यह भी ज्ञात हो कि श्लोक १६४ के भाग्य में मेवातिथि जो अन्य पांच भाज्यकारों से प्राचीन हैं लिखते हैं कि. व्यासदर्शनातु भोजयितुरयं दोप. न भाकु न पितॄणां न सायन्सूतानामन्यकृतेन प्रतिपेघातिक्रमण टोपसम्बन्धोयुक्त । प्रकृ- ताम्यागमाविदोपापत्तः । यहि हि पुत्रेण तादृशा ब्राह्मणा भाजित को पराणे मृतानाम 'ननु चोपकारोऽपि पुत्रकृतः पितृणामनेन न्यायन न प्राप्नोति ' न प्राप्नुयाद्यदि तायेन श्राद्धादि नादिनं स्यात् । इह तु नास्ति चोदना ॥ इत्यादि) २२