पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१७३

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१७० मनुस्मृति भावानुवाद दूसरे तपरतत्पर होते हैं और कोई तप अध्ययनरत होते हैं और कोई यज्ञादि कर्म मे तत्पर होते हैं ॥१३४॥ उन मे ज्ञाननिष्ठ को श्राद्धो मे यत्नपूर्वक भोजन देवे. अन्य यज्ञो में कम से चारों को भी मोजन देदे ॥१३५॥ जिस का पिता वेद न पढ़ा हो और पुत्र पड़ा हो या जिस का पुत्र न पढ़ा हो और पिता वेद जानने वाला हो ॥१३॥ इन मे श्रच उस को जाना, जिस का पिता भोत्रिय हो । परन्तु वेद पूजन का दूसरा याग्य है ॥१३७॥ श्राद्ध मे मित्र को भोजन न करावे, धन से इस का सत्कार करें और जिस कंत्र न तो मित्र जान न शत्रु ऐसे द्विज का श्राद्ध में भोजन करावे ॥१३८। जिस के श्राद्ध और इकि, मुख्यतः मित्र खाते हैं, उस को पारलौकिक फल न श्राद्धो का है,न यज्ञो का ॥१३॥ जो मनुष्य अज्ञानवश श्राद्ध द्वारा मित्रता करता है, वह अधम श्राद्ध मित्र द्विज स्वर्गलाक से पतित होता है ॥१४०॥ वह दान प्रक्रिया द्विजों ने पैशाची कही है कि जिस किसी के आपने भोजन किया है, उसी का परसर जिमाना, यह इसी लोक में फल देने वाली है, जैसे अन्धी गौ एक ही घर में खड़ी रहती है ( दूसरी जगह नहीं अर्थात् न्यासस्मृति से वो भोजन कराने वाले को यह दोष है, न भोजन करने वाले और न पितरों को क्यों कि मरों को अन्य के किये अपराध का फल युक्त नहीं है। ऐसा है तो अकृताभ्यागमन विना कर्म किये फल भोग्गदि दोप प्राप्त होगा। क्यों कि पुत्र ने ऐसे ब्राह्मण को भोजन कराया इस में मरे पितरों का क्या अपराध है ? तो फिर ऐसे न्याय से तो पुत्र का किया श्राद्धरूप उपकार भी पितरो को न मिलना चाहियेहां जो मरों के लिये विधान किया होतो नहीं मिल सकता । परन्तु यहां तो मरों के लिये विधि नहीं है ।। (इत्यादि)