पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१७४

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मृतीयाऽध्याय १०१ . जाती ) ॥१४॥ जैसे अपर भूमि में बीज बोने से बोने वाला फल नहीं पाता, वैसे विना बद पड़े का हवि देकर देने वाला फल नहीं पाता ॥१४॥ वेद जानन वाले ब्राह्मण को यथाशा व दिया हुवा दान दाता और प्रतिमहीता दोना को इस लोक और परलोक में फल का भागी करता है ।।१४।। श्राद्ध मे मित्र को चाहे बैठा डेवं, परन्तु शत्रु विद्वान हो तो भी उसे न बैठावे. क्या कि जा द्वेष- भावसे भक्षण किया हवि है, यह परलोक निष्फल होता है।१४४॥ पूर्ण ऋग्वदी को बाद में भोजन करावे, उमी प्रकार सशास्त्र यजुर्वेदी और जो सम्पूर्ण सामवेद पढा है और जिसने वेद समाप्त किया है ऐसे श्रामण का यत्नपूर्वक भोजन करावे ।।१४५॥ इन में स कोई प्रागण 'अच्छे प्रकार पूजित किया हुवा जिम के श्राद्ध में भाजन करता है, उस पितरों की निरन्तर सात पुरुष तक तृप्ति होती है ॥१४॥ "एप वै प्रथम.कल्प. प्रदान हव्यफन्यो । अनुकल्पस्त्वयं शेय. सदा सद्भिरतष्ठितः ॥४७॥ मातामहं मातुलं च म्वनीय श्वशुर गुरुम् । दौहित्रं विपति वन्युमृत्विग्यायो च भाजयेन ॥१४॥ न ब्राह्मएं परीक्षेत दैव कर्मणि धर्मविन । पित्र्ये कर्मणि तु प्राप्त परीक्षेत प्रयलत. ॥१४॥ ये जेनपतितक्लीवा ये च नास्तिकवृत्तयः तान्हव्यकव्ययोर्विवाननर्हान मनुरब्रवीत्।१५० जटिलं चानधीयान दुर्बलं कितवं तया । याजयन्ति च ये पूगां- स्तांश्च श्रद्धेन भोजयेत् ॥१४॥ चिकित्सकान्देवलकान्मांस- विक्रमिणम्तथा । विपणेन च जीवन्तो वा' स्युहव्यकव्ययों ॥१५२॥ प्रेभ्योग्रामम्य रामच कुनखी श्यावदन्तक. प्रतिरोद्धा गुरोश्चैव त्यक्ताग्निर्वापिस्तथा ॥१५॥ यक्ष्मीच पशुपालब्ध