पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७२ मनुस्मृति भाषानुवाद परिवेचा निराकृतिः । ब्रह्माद्विपरिवित्तिश्च गणाभ्यन्तर एव च ॥१५४॥ कुशीलवोऽवकीर्णी च पलीपतिरेव च । पौनमवश्य काणच यस्य चोपपतिगृ है ॥१५५।। भृतकाध्यापका याच भृत- काध्यापितस्तथा।शशिष्या गुरुश्चैव वाग्दुष्टः कुण्डगालको १५७। "हन्य और कन्य के देने में यह मुख्य कल्प कहा है और इसके अभाव मे आगे जो कहने हैं उस को अनुकल्प जाने। वह साधुओ से सर्वग अनुशन किया गया है ।।१४७॥ इन १० माता- महाति को भोजन करादेवे नाना १. मामा २, भानजा ३, ससुर ४, गुरु५ धेवता , जवाई ७, मौसी का लड़का ८ ऋत्विज १, वथा याय अर्थात् यज कराने योग्य १० ॥१४८॥ चाहे धर्म का जानने वाला यन्न मे भोजन के लिय ब्राह्मण की परीक्षा न करे परन्तु भाव मे यत्नपूर्वक परीक्षा करे ॥१४९॥ जो चार महा पातकी नपुमक और नास्तिक पृत्ति वाले हैं ये विन मनु ने हन्य कन्य के अयोग्य कहे हैं ।।१५०॥ जटाधारी परन्तु पढ़ा, दुर्वल. जुबारी और बहुत उद्यापन कराने वाला, इन सब को श्राद्ध मे भोजन न करावे ॥१५१॥ वैध, पुजारी, मांस का घेचने वाला और वाणिज्य से जीने वाला ये सब हव्य और कव्य में निषिद्ध हैं ॥१५२॥ प्राम और राजा का हलकारा, कुनखी, काले दांत वाला. गुरु के प्रतिकूल चलने वाला, अग्निहोत्र का छोड़ने वाला व्याज जीवी ॥१५३।। क्षयरोगी वृत्ति के लिये गाय, भैंस, बकरी इत्यादि का पालने वाला, परिवेत्ता, नित्यकर्मानुष्ठान से रहित, ब्राह्मण का कैप करने वाला, परिवित्ति (देखा १७१) समुदाय के इन्य से अपना जीवन करने वाला ॥१५४।। कथावृत्ति करने वाला, जिस का ब्रह्मचर्य नष्ट हुवा हो, शूदा से विवाह करने वाला, पुन- विवाह का लड़का, जिस की स्त्री का जार हो ॥१५५।। वेतन