पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीयाऽध्याय राख में हम नहीं किया जाता ॥१६सा पक्तिवाह्य ब्राह्मणों को देवताओं के हव्य और पितरों के कव्य देने में दातार का जो देने के अपर फल होता है. वह सम्पूर्ण मैं आगे कहूंगा ॥१६॥" अवतैर्यद् द्विक्तं परिक्षेत्रादिभिस्तथा । अपातयैर्यदन्यैश्च त रक्षांसि भुञ्जते । १७०॥ वेदानव रहित श्राह्मण और (वक्ष्यमाण) परिवेता आदि या और कोई (चार इत्यादि) पंक्तिवाहों ने जो भोजन किया, उसका राक्षस भाजन कहते हैं।॥१७॥ दाराग्निहोत्रप्रयागं कुरुले योऽप्रजे स्थिते । परीपेत्ता स विक्षयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः ॥१७॥ परिवित्तिः परीवेचा घमा च परिविधते । सर्वे ते नरकं यान्ति दात्याजकपञ्चमाः ।।१७२॥ जो कनिष्ठ ज्येष्ठ भ्राता के रहते , उससे प्रथम विवाह और अग्निहोत्र करे. उसको "परिवेत्ता और ज्येष्ठ को "परिविचि. जाना ॥१७१|| परिवित्ति और परिवेत्ता और वह कन्या तथा कन्या का देने वाला और याजक विवाह का आचार्य, ये पांचों सब नरक को जाते हैं ।।१७।। प्रातुमतस्य भार्यायां या नुरज्येत कामतः । धर्मेणापि नियुक्तायां स शेयो दिधिपूपतिः ॥१७॥ पग्दारेषु बायेते द्वौ सुतौ कुण्डगोलको । पस्यौ जीवति कुण्डः स्यान्मृते भर्तरिंगालकः ॥१७॥ मरे माई की भार्या से धर्मानुसार नियोग भी किया हो परन्तु