पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१७९

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मनुस्मृति भापानुबाद - उसमे जो कामवश होकर प्रीति कर उसे दिधिषपति जाना ॥१७३|| पर त्री से उत्पन्न हुये वा पुत्रों को कुएड और गोलक कहते हैं। पति के जीवने जा हो वह कुण्ड और मरने पर हो वह गोलक है (१४० से यहां तक भी चिन्त्य है) ॥१७४|| 'ही नु नानी परने प्राबिनौ ग्रे-य चेरच। उत्तानि हव्यकव्यानि नाशयते प्रगविनाम ॥१७५।। आपदकयो यायवः पाइयोन् मुस्तानाननुपश्यति । सावतां न फलं प्रेन्यताप्राप्नोति बालिश' ॥१७॥ वील्यान्यो नबने काण पडे शिवत्री शतस्य तु । पारोगी सहसूस्य दातु शयने फलम् ।।१७७ यात्रतः संस्पृशे- गाह्मणान्याजका । साबना न भवेदातु. फर्म दानस्य पौर्तिकम् ॥१७॥ वेदविच्चापि विप्रोऽस्य लाभात्कृन्या प्रति हम विनाश व्रजति क्षिप्रमामपात्रमिवाम्भमि ॥१७९|| सामविक्रयिसे विठा भिपजे पूषोणिनम् । नष्ट देवलक दत्तम प्रतिष्ठं तु धाधु पौ ॥१८॥ “देने वाले के हन्य और कन्यों को इस लोक और परलोक में जा दूसरे के क्षेत्र में उत्पन्न हुये है नए करते हैं ।। (श्लोक १७५ से फिर अमम्पद परस्पर विरुद्ध मृतकनाडू के श्लोक चलते है । १७६-२८२ तक मे पक्तियाहों के भाजन कराने का फल नष्ट कह कर १८३-१८६ तक पक्तिपावन ब्रामण गिनाये है । जवकि पाक्तिपावन पक्ति को पवित्र कर देता है तो श्लोक १७७ का यह कहना वृथा है कि अन्धा ब्राह्मण अपनी दृष्टि से ९० वेदपाठियों के जिमाने के फल को नष्ट करता है । कामा ६० के श्वेतकुछी १०० के और पापरोगी १००० के फल को नष्ट करता