पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१८०

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तृतीयाध्याय १४७ है । फिर मला पंक्तिपावनता क्या रही। अन्धे आदि ही बलवान् रहे। अन्धा देख भी नहीं सकता इसलिये भी १७६ वा श्लोक असम्भव दोपयुक्त है । १७९ मे कहा है कि वेदज्ञ ब्राह्मण भी पत्तिवाह्य के साथ लोम से प्रतिमाह ले तो नष्ट हो जाता है और वेदज्ञ को १८४ वे मे पंक्तिपावन कहा है। यह परस्पर विरोधहै । १८० में १२ वा ३ ब्राह्मण श्राद्ध में लिख है और पूर्व भी विवार को वर्जित कियाहै तो फिर ६०१९०। १०० १ १००० जव श्राद्ध में जिमाये ही नहीं जाते तब फल नाश किनका होगा१८८ वे में श्राद्ध जिमाने और जीमनेवाले को उसदिन वेद पढ़नेका निषेध भी चिन्तनीयहै । १९४ में विराट का मनु, मनुके मरीच्यादि, उनके पुत्र पितर लिखे हैं। फिर मनुष्यों के भूत माता पिता आदि का उद्देश्य कहो रहा ११९५ से १९७ तक भिन्न जातियों के सामसदादि भिन्न २ पितर कहे हैं तब मनुष्य जाति का सवका श्राद्ध व्यर्थ है। २०५ से २८३ तक मृतकाद्धकी विधि और मांसांका वर्णनई जिनसे इन कल्पित पितरों की तृप्ति की कल्पना की गई है। जब सूतकश्राद्ध ही वेद विहित नहीं तव उनके विधानादि स्मृत्युक्त सभी निष्फल और दुष्फल हैं और तृतीयाऽध्याय के अन्तिम श्लोक २८६ में कहा है कि यह पञ्चमहायन का विधान वर्णन किया गया" इससे भी पाया जाता है कि बीच के २८३ तक कहे मृतक पितरों के मासिकादि श्राद्ध प्रक्षिप्त हैं क्योंकि पञ्चमहायज्ञ तो गृहस्थ का नैत्यिक कर्म है नैमित्तिक नही ।।१७।। पंक्ति के अयोग्य पुरुष अपाङ्क्तय पूर्वोक्त चौगदि जितने भोजन करते हुवे श्रोत्रियादि को श्राद्ध में देखते हैं, उतनों का फल भोजन कराने वाला मूर्ख नहीं पाता ॥१७६ अन्धा देखकर दाता के ९० श्रोत्रियादि ब्राह्मणों के भोजन का फल नष्ट करता है और काणा ६० का, श्वेद कोढ़ बाला १०० का और पापरोगी १००० S स