पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१८१

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का मनुस्मृति भाषनुवार प्राणों के भोजन का फल नष्ट करता है, ॥१७७॥ शन का यज्ञ कराने वाला अङ्गो से जितने श्राद्ध में भोजन करने वालों को छुचे उतनों का पूर्ण सम्बन्धी श्राद्ध का फल दाता को न होगा ।।१७८|| बेट का जानन वाग भी विप्र शहयाजक कंसाथ लाम से प्रतिग्रह लेकर शान ना हो जाना है जैसे कन्या वातन पानी में ना हो जाता है ।।१७। सोमविक्रयों को जो हव्य कन्य देवे ने विष्ठा होती और बैच को देखें तो पीव रक्त और पुजारी को देने से नष्ट होता, है.तथा ज्यान पनि का तो अप्रतिष्ठित होता है ।।१८०॥" "यम वाणिजके दत्ता नेह नामुत्र पवेत् । मरमनीव हुतं हम ध्या पौनमबे द्विजे ॥१८१॥ इतरेषु त्वक्तियेषु यथोरिटल साप । । मेदोम मांसमजास्थि वन्यन्न मनीषिणः ॥१८॥ . अशक्यावहता पछत पायने बैटिजोत्तमैः । तानियोधन शास्न्येन द्विजायान्म तपाबनान् ।।शा अन्याः सर्वेषु नेदेषु सर्वप्रवचनेषु च । श्रोत्रियान्वयना धैव विज्ञ या. पति पापना. ॥१८४॥ त्रिशाचिकेत' पञ्चाग्निन्त्रिसुपर्ण. पडझविन् । ब्रह्मदेवात्मसन्तानो ज्येष्ठेमामग एव च ॥१८५|| वेदार्थविप्रवक्ता च ब्रह्मचारी सहम्मद । शताबुधैव विज्ञ या ब्राह्मणा. पदक भाषन्धः ॥१८६॥ पूर्वयुरपरेचर्चा श्राद्धकर्मण्युपस्थिते । निमन्त्रयेत ध्यवरान्सम्यग्विनान्यथोगिताम् ॥१८० निमन्त्रिता विज. पिञ्चे नियतात्मा भवेत्सदा। न च छन्दास्यधीयीत यस्य श्राद्ध च तद्भवेत् ॥१८८॥ निमन्त्रितान्हि पितर उपतिष्ठन्ति तान्तिजान् । वायुवच्चानुगच्छन्ति तथासीनानुपासते ॥१८॥ केचित्तस्तु यथान्यायं हव्यकाये द्विजोत्तमः । कथञ्चिदप्यतिक्रामन्पापः . '५