पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१८७

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मनुस्मृति भाषानुवाद यन शनकैरूपनिक्षिपेत् ॥२२४॥ उभयाईस्वयोर्मुक्तयदन्नमुपनीयते तविप्रलुम्पन्न्यसुरा सहसा दुष्टचेतसः ।।२२५॥ गुणांश्च सूप- शाकाद्यान् पयोदधि घृतं मधु । विन्यसेत्प्रयतः पूर्व भूमावेव समाहित २२॥ प्रथम यथाविधि होम करके अग्नि साम थम का पर्युक्षण पूर्वक तर्पण करके पश्चात् पितरो को तृप्त करे ।।२११॥ अग्नि के अभाव मे होम न करे तो ब्राह्मण के हाथ पर (उक्त तीन) आहुति दे देवे क्योंकि जो अग्नि है वही ब्राह्मण हैं. ऐसा मन्त्र के जानने वाले कहते हैं ।।२१२॥ क्रोध रहित और प्रसन्नचित्त वाले और वृद्ध तथा लोगों की वृद्धि में उद्योग करने वाले द्विजोत्तमो को श्राद्ध पात्र कहते हैं ॥२१शा अपसव्य से अग्नीकरणादि होम और अनुष्ठानक्रम करके पश्चात् दक्षिण हाथ से भूमि पर पानी डाले IR१४|| उस होम द्रव्य के शेप से तीन पिण्ड बनाके जल पाली विधि से दक्षिण मुख होकर स्वस्थचित्त से (कुशो पर) चढ़ावे ॥२१५|| विधिपूर्वक उन पिण्डो को (ढोपर) स्थापन करके उन दमों के ऊपर लैपभागी पितरों की तृप्ति के लिये हाथ पूछ डाले ॥२१६॥ अनन्तर उत्तर मुख होकर आचमन और ३ प्राणायाम शनैः २ करके मन्त्र का जानने वाला पट्ऋतुओं और पितरों को भी नमस्कार करे ।।२१७॥ एका चित्त बाला पिण्डदान के पात्र में जो शेप पानी यचा हो उसको पिण्डो के समीप धीरे २ छोडे । सावधान हुवा जिस क्रम से पिण्डो को रक्खा था उसी क्रम से सूघे ॥२१८॥ क्रम के साथ प्रत्येक पिण्ड से थोड़ा २ भाग लेकर विधि के साथ उन्हीं अल्प मागो को मामन के समय ब्राह्मणों को प्रथम खिलाव ।।२१।। पिता जीता हो तो बाबा आदि का ही श्राद्ध करे वा पिता के स्थान में अपने (जीवते) पिता को भोजन करा देवे