पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१८८

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हत्तीयाऽध्याय ॥२२०॥ पिता जिमका मरगया हो और बाबा जीना हो, तो पिता का नाम उच्चारण करके प्रपितामई का उच्चारण (श्राद्ध में) करे ॥२२॥ या उस श्राद्ध में जीते पितामह को भोजन करावे ऐसा मनु कहते हैं या पितामह की पाना पाकर जैमा चाहे वैसा करें IR२२उन (rari) के हाथ मे सपवित्र तिलोदक देकर पित पितामह प्रपितामह के साथ 'म्बया अस्तु" ऐसा उग्चारण करता हुवा क्रम से वह पिण्डका अन्य भाग देवे ॥२२शा परिपक्च अन्नो के पात्रों को अपने हायों में द्विरस्तु कह कर पितरों का स्मरण करता हवा बामणों के समीप धीरे र रमवे ॥२२४॥ (ग्रामणका) दानो हाथों में न लाये हुवे अन्न का अकस्मान् दुष्ट बुद्धि वाने अमुर कीन स्त्राने हैं (इससे एक हाथ से लाकर न रस्त्रे||५|| चटनी दाल तरकारी इत्यादि नाना प्रकार के व्यञ्जन ध दही धन और मधु का पवित्र होकर तथा स्वाचित से प्रथम (पात्र सहित) भूमि पर रपव ॥२२॥ भक्ष्य भाज्यं च विविध मूलानि च फलानि च । हृयानि चैव मांसानि पानानि सुरभोणि च ॥२७उपनीय तु तत्न शनकै सुसमाहितः । परिवेषयेत् प्रयतोगुणान्मन्प्रचोदयन् ।।२२८॥ नाच मापातयेातु ने कृप्येन्नातून वढेन । न पाडेन म्यूशेन चैतद्रवधूनयेत् ।।२२९॥ अन्न गमयति प्रेताकापोऽरीनऽनृतंसुन पादस्पर्शस्तु रक्षांसि दुष्कृतीनमधूननम् ।।२३०॥ यद्यद्रोचेत विप्रे- ध्यस्तत्तह बदमत्सर। ब्रह्मोद्याश्च कथा. फुर्यात्पितणामेतदीप्सितम ॥२३१|| स्वाध्यायं भावयेत्पित्र्ये धर्मशास्त्राणि चव हि । आख्य- नानीतिहासांश्च पुराणान्यखिलानि च ।।२३२।। हर्पयेद् ब्राह्मण- स्तुष्टो भोजयेच्च शनैः शनैः। अन्नाद्यनामकृच्चैतान गणेश्व