पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१८९

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मनुस्मृति भाषानुवाद परिचादयंत ||२३व्रतम्थमपि नहितं श्राद्धे यत्नेन भोजयेत् । कुतर्ष चामने दयानिनश्च विकिरेन्महीम् ॥३४॥ त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौत्रि कुतपम्तिला. । त्रीणि चार प्रशंसन्ति शौच- माधमन्वयम् ।।२३५।। अन्युष्णं सर्वमन्न स्याद्ज़ीरम्ते च वाग्यना । न च विजातया नृयुर्मात्रा पुष्टा हविगु णान् ॥२३॥ याबदुष्ण भवत्यन' यावदश्नन्ति चाग्यताः। पितरस्वावदश्नन्ति यावनोक्ता हविगुणा २३७ योटितशिराम के यडू ते दक्षिण- मुख सापानकाश्य यह मुंकेत रक्षांसि भुजते ॥२३॥ चण्डालश्च वराहश्च कुलसुट' वा तव च । रचस्वला च पण्डश्च नरनश्नता हिनान् ॥२३॥ होम प्रदान भाज्ये च यदेमिरमिवीक्ष्यते । देवे काणि पित्र्यं वा तद्गच्छत्ययथातथम् ॥२४ा पाणन सुकरो इन्ति पक्षवातेन कुक्कुटः । श्वा तु दृष्टि- निपानेन पर्सेनाऽपरवीजः ||२४|| सोब यदि वा काणे नातु प्रेध्यापि या भवेत् । हीनातिरिक्तगात्रो वा तमप्यपन- येत्पुनः ॥२४" "नाना प्रकार के मध्य भोजन, मूल, फल और हृदय के मांस और मुगन्धि, युक्त पीने के द्रव्य ।।२२४॥ ये सम्पूर्ण अन्न धीरे से ब्राह्मणों के समीप लाकर पवित्रता और स्वस्थ चित्त से मुख के गुण कहता हुआ परोमे ॥२२सा (प्राद्ध के समय में) रोदन और क्रोध न करे, झूठ न बोले, अन्न में पैर न लगाये और अन का न फेंके ॥२२९॥ रोने से यह अन्न प्रेता को मिलता है, क्रोष करने से शत्रुओं को प्राप्त होता है और असत्य भाषण करने से कुत्तों की पहुँचता है तथा पैर लगाने से राक्षस खाते हैं और