पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१९०

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तृतीयाध्याय का हुआ पापी पाते हैं ॥२३०॥ और जो २ अन्न बाहरणों का अच्छा लगे वह २ देवे। मत्सरतारहित होकर ईश्वर सम्बन्धी धात करे क्योंकि पितरों को यही इष्ट है ॥२३१|| बंद, धर्मशास्त्र और आल्यान तथा इतिहास पुराण इत्यादि श्राद्धमें सुनवावे ।२३२॥ प्रसन्न चित्त हुआ आप ब्रामणों को प्रमन्न करें और अन्न से जल्दी न करता हुआ भोजन करावे और मिष्टान्न के गुणों से ब्राह्मणों को प्रेरण करे ।।२३शा श्राद्ध में दौहित्र (नाती) ब्रह्मचारी हो तो भी यत्न से भोजन करावे । वैठने को नेपाली कम्बल देव और श्राद्ध भूमि में तिल डाले ॥२३॥ श्राद्ध में नीन पवित्र हैं- नाती, कम्बल और तिल । और तीन प्रशंसा के योग्य हैं-१ क्रोध कोन करना पवित्रता तथा ३ जल्दी न करना ॥२३५|| बोलना बन्द करके ब्राह्मण भोजन करें। भोजन योग्य जो पदार्थ हैं वे सव उष्ण (गरम) होने चाहिये और श्राद्ध करने वाला भोजनो का हुण पूछे तो भी विप्र न बोलें ॥२३॥ जब तक अन्न उष्ण हैं और जब तक मौनयुक्त भोजन करते हैं और जब तक भोजन के एस नही कहे जाते तब तक पितर भोजन करते हैं ॥२३७॥ सिर गंधे हुवे जो भोजन करता है और दक्षिण मुख जो भोजन करता है तथा जूता पहरे जो खाता है व सवराचस भोजन करते है (पितर नहीं) ॥२३८॥ चाण्डाल, सूकर मुरगा, कुत्ता रजस्वला स्त्री और नपुंसक, ये सब भोजन करते हुवं ब्राह्मणों को न देखे २३९॥ अग्निहोत्र, बान, अन भाज, देवकर्म वा पितृकर्म में जो ये देखें तो वह सब निष्फल हो जाता है ।।२४०॥ मूकर (उस अन्न को) मचने से (कर्म को) निष्फल करता है। पैरों की हवा से 'मुरगा और देखने से कुत्ता और छने से शद्र निम्फल कर देता है ।।१४।। जिसका पैर मारा गया हो पा काणा वा दाता का दास हो वा न्यून या अधिक अङ्ग वाला हो उसको भी (श्राद्ध के