पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१९२

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तृतीयाऽध्याय पचित्रं यच्च पूर्वोत्तम किया हव्यसम्पद. ॥२५६ मुन्यन्नानि पयः सोमो मांस यच्चानुपम्कृतम । अक्षारलवणं चैव प्रकृत्या हविरुध्यते ॥२५७।। विसृज्य ग्रामणांस्तान्तु नियतो वाग्यतः शुचिः । दक्षिण दिशमाकानन्याचतेमान्वरान पितॄन् ॥२५८112 मितक वा बादाण उस काल में भोजनार्थ प्राप्त हो तो उस का भी ब्राह्मण की आना पाकर यथाशक्ति पूजन करे (भाजन कराने या भिक्षा देवे) २४शा सर्व प्रकार के अन्नादि का एकत्र करके पानी से छिड़क कर भोजन किये हुये ब्राह्मणों के आगे दर्भपर बखेरता हुआ रक्खे ॥२४ा संस्कार के अयोग्य मरे बालको तथा त्यागियों और कुल स्त्रियों का उच्छिष्ट कुश पर का भाग विकिर (२४४ में कहा) है ।२४५ मा कि भूमि पर गिरा भाव में उच्छिष्ट है वह दासों के समुदाय का भाग है ऐसा मनु कहते हैं । परन्तु यह दास समुदाय सीमा हो और कुटिल न हो ॥२४॥ मरे द्विजो की सपिण्डी तक वैश्वदेवरहित श्राद्धान्न (प्राणों का) जिमाने और एक पिण्ड देवे ॥२४ा परन्तु धर्म से सपिण्डी हो जाने पर पुत्रों को उक्त प्रकार से पिण्ड प्रदान करना चाहिये ॥२४८॥ जा श्राद्वो- च्छिष्ट को भोजन करके शूद्र को देता है वह मूब कालसूत्र नाम नरक को जाता है जिसका नीचे का शिर और ऊपर का पर होते हैं ॥२४९॥ जो श्राद्वान्न भोजन करके उस दिन वेश्याप्रसङ्ग करताह 'उसके पितर उस वेश्याके विना में उस महीने तक लेटते है ॥२५॥ हम ब्राह्मण को 'अच्छे भाजन हुआ ऐसा पूछकर आचमन करावे पश्चात् आचमन कियों को आराम कीजिये ऐसा कहे ॥२५१॥ इस कहने के अनन्तर ब्रामण श्राद्धकर्ता के प्रति 'स्वधा अस्तु' ऐसा कहैं । क्योंकि सर श्राद्धक्रम मे स्वधा शब्द का उच्चारण परम आशीर्वाद है ॥२५॥ स्वधा शब्द के उच्चारणानन्तर निवेदन