पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१९४

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वृतीयाऽध्याय पानिप्राय प्रकलयेन् । नातिभ्य. सत्कृन दत्ता बान्धवानपि माजयेन् ॥२६४॥ उच्छेपणं तु तत्तिष्ठेद्यावद्विना विसर्जिता. । ततो गृहयलि कुर्यादिति धर्मो व्यवस्थित. ॥२६५।। इविश्चिररात्राय यच्चानन्याय कल्पते । पितृभ्यो विधिवदत्त सत्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ।२६६॥ तिलैीडियवपिरहिमूलफलेन वा । दवे ने मास तृप्यन्यि विधिवत्सितगे नृणाम ||२६७॥ द्वौ मासौ मत्स्यमामेन नीन् मासान्हारिणेन तु । औरणाथ चतुरः शाकुननाय पंच २८॥ परमामांश्यामगांसेन पार्वतेन च मप्त वै । अष्टात्र- रणस्य मांसेन रौ वेण नीव तु ॥२६९|| दशमासांस्तु वृष्यन्ति बराइमहिपामिपैः शशकूर्मयोस्तु मसिन मासानकादशव तु(२७०" "हमारे कुल में देने पाने, वेट और 'पुत्र पौत्रादि बड़े श्रद्धा हमारे कुल से न हटे और धनादि बहुत हो । हमारे अन्न बहुत होये हम अतिथियों को भी पाच हमसे मांगने वाले हो और हम किमी से न मांगें । जो ब्राह्मणा-धम श्राद्ध भोजन करके उन दिन दूसरी बार भोजन करता है वह सूकर चा कीड़े की यानी पाना है। इसने मंशन नहीं ॥] (ये दो श्लाक बहुत ही यो दिनों से मिलाये गये हैं क्याकि इनमे पहला श्लोक गुपने लिले ३० मे से ७ पुस्तका में है २३ में नही तथा रायवानन्द और रामचन्द्र इन दो ने ही इस पर टीका किया है, औरों ने नहीं । दूसरा श्लोक ३० में केवल १ लिखित पुस्तक में ही मिलता है शेप २९ में नहीं। इस पर टीका भी किसी ने नहीं की) ॥२५९॥ उक्त प्रकार से पिण्डदान करके उन पिण्डों का गाय, ब्राह्मण, चकरा वा अग्नि का खिलावे वा पानी में डाल देवे ॥२६|| काई प्रामण भोजन के अनन्तर पिण्डदान .