पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१९८

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तृतीयाऽध्याय पितर-वसुत्रो और पितामह - रुद्रों और प्रपितामह - आदित्यों को कहते हैं। यह सनातन से सुनते हैं । ( इस विषय में चान्दोग्य उपनिषद् ३ ॥ १२ में भी लिखा है सा देखने योग्य है- पुरुषोवाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विशतिपाणि तत् प्रातः सवनं, चतुर्विधशत्यक्षरा गायत्री, गायन प्रातः सवनं, तदस्य वसवावायत्ताः, प्राणा वाब यसब ते हीदर्भसर्व वासयन्ति ॥१॥ प्रथयानि चतुश्चत्वारिपशद्वर्षाणि तन्माध्यन्दिन सवनं, चतुश्चत्वारियशदक्षरा निष्टुप् त्रैष्टुभं माध्यन्दिनईसवनं, तदस्य रुद्रा अन्यायाः, प्राणायात्र रुद्रा एते हीदखसर्व रोदयन्ति ॥२अध्या- न्यष्टाचत्वारिशद्वय तत् तीयसवनमष्टाचत्वारिवंशद- चरा जगती, जागतं तृतीयसवन, तदस्यादित्याअन्वायत्ता, प्राणा वाचादित्या एते हीटसर्वमाददते ॥५॥ भावार्थ-मनुष्य भी एक यक्ष है। जैसे यज्ञ के प्रातः सवन, माध्यन्दिनसवन और सायंसवन या कृतीयसवन ये ३ सवन होते है, ऐसे ही मनुष्य देहयात्रा रूप यज्ञ के २४ । ४४ । ४८ वर्ष ३.सक्न हैं । गायत्री के २४ अक्षर हैं। प्रात. सबन का भी गायत्री छन्द है उसमें इसके प्राश धसुसंज्ञक होतेहैं । ४४ अक्षरका त्रिष्टुप छन्द है और माध्यन्दिन सवन का भी निष्टुप्छन्द है । उस में इस के प्राण रुद्र संजक होते हैं। और ४८ अक्षर का जगती चन्द है और तृतीयसक्न का मी जगसी छन्द है। उस मे इस के - प्राण प्रादित्यसंज्ञक होते हैं (निदान २४ वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रतधारी के प्राण वसु, ४४ वर्ष वाले के रुद्र और ४८ वर्ष वाले के आदित्य