पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/१९९

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१९६ मनुस्मृति मापानुवार कहाते है। ये ब्रह्मचारी यज्ञम्वरूप हैं और क्रम से पिता पितामह और प्रपितामह के समान सत्करणीय है) ॥२८४॥ विवसाशी भवेनित्यं नित्यं वामृतमेाजनः । विषसा मुक्तशेष तु यज्ञशेष वथामृतम् ॥२८॥ एतद्वोमिहितं सर्व विधानं पाञ्चयज्ञिकम् । द्विजातिमुख्यवृतीनां विधानं अवतामिति ॥२८६।। सर्वदा विवस भोजन करने वाला वा अमृत भोजन करने, बाला होवे। (बाझरणादिका के) भोजन के शेष को विधस और यज्ञशेष का अमृत कहते हैं ।।२८५।। यह पञ्चयज्ञानुमान की सब विधि तुम से कहीं । श्रव द्विजों में मुख्य (ब्राह्मए) की वृत्तियों का विधान सुना ॥२८॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे ( भृगुप्रोक्तायां संहितायां ) तृतीये ऽध्यायः ॥३॥ इति श्री तुलसीरामत्वामिविरचिते मनुस्मृतिभाषानुवादे तृतीयोऽध्यायः ॥२॥