पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२००

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अथ चतुर्थोऽध्यायः चतुर्थमायुपो मागमुपित्वाऽधं गुरी द्विजः । द्वितीयमायुपो भागं कृतदागे गृहे वसेत् ॥१॥ प्रद्रोहेणत्र भूतानामल्पद्रोहेण चा पुनः । या वृतिस्ता समास्थाच चित्रो जीवेदनापदि ॥२॥ आयु के प्रथम चौथाई भाग (१०० वर्ष प्रमाण से चौथाई २५ वर्ष) द्विज गुरुकुल में निवास करके आयु के द्वितीय भाग मे गृहस्थाश्रम को धारणा करे। जिस वृत्ति में जीवो को पीडा न हो वा अल पीड़ा ऐसी वृत्ति को धारण करके आपत्ति रहित कालमें विप्र निर्वाह करें। यात्रामात्रप्रसिद्धयथं सौः कर्मभिरगर्हितः । अक्लेशंन शरीरस्य कुर्वीत धनसञ्चयम् ॥३॥ ऋतमताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा । सत्यानतास्यामपि वान श्ववृत्या कदाचन ॥४॥ प्राणरक्षक शास्त्रानुसार कुटुम्वपोषण और नित्यकर्मानुष्ठान मात्र के लिये अपने प्रनिन्दित कमों से तथा शरीर में यलेशन करके धन सञ्चय करे ॥ ऋत-अमृत वा मृत-अमृत सेवा सत्य-अमृत से जीवन करे परन्तु कुत्ते की वृत्ति से कभी नहीं ||१|| ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृत स्यादयाचितम् । मृतं तु याचितं मैचं प्रमृतं कर्षणं स्मतम् ।।५।।