पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२०१

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मनुस्मृति भाषानुवाद - सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैत्रापि जीन्यते । संवा श्ववृत्तिगरख्याता तस्मात्तां परिवजयेत् ॥६॥- एन्छ और शिल को ऋत, न मांगने की वृत्ति का अमृत और मांगी मिक्षा का मन तथा कृषिको प्रमृतजानना चाहिये ।।१। इनसे या सत्यान्त गरिय वृत्ति से जीवे और सेवा कुचे की वृत्ति कहीं है इससे उसे बजित करं ॥३॥ कुशूलधान्यको वा स्यात्कुम्भीधान्यक एवं वा । व्यहेहिको वापि भवेदश्वस्तनिक एव वा ॥७॥ चतुर्णामपि चैतेषां द्विजानां गृहमेधिनाम् । व्यायान्परः पराञया धर्मता लोकनिचमः | कोठार मे धान्य का सञ्चय करने वाला हो वा घड़े भर अन्न सब्चय वाला हो या दिनत्रय के निर्वाहमात्र का सञ्चय करने वाला हो या कल को भी न रखने वाला हो। ( के आगे ३० मे से केवल एक पुस्तकमें यह श्लोक अधिक पाया जाता है। सद्य प्रवालिको वा स्यान्माससञ्चयिकापि वा। परमासनिचयोवापि ममानिचय एव वा ॥शा तुरन्त हाथ धो डालने वाला था एकमास वा छ.मास यवा एक वर्ष के लिये धान्यादि सञ्चय करने वाला होवे ॥१॥ (यथार्थ में मनु के लेखानुसार गुण कर्म स्वभावयुक्त माझण हो और तदनुसार ही उनकी जीविका का भार क्षत्रिय वैश्यों पर रहे तो संचय की ब्राह्मणों को कुछ आवश्यकता नहीं है ) . उन चार गृहस्थ द्विजो में एक से दूसरा फिर तीसरा इस क्रम से श्रेष्ठ (अर्थात् जितना जिसके कम संग्रह हो उतना वह नोट है). धर्म से लेोक का अत्यन्त जीतने वाला ससझना चाहिये ।।८।।