पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२०२

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चतुर्थोऽध्याय पवमै काभवत्येषां विभिग्न्यः प्रवक्ते । दाम्यामश्चतुथन्तु नामात्रेण जीवनि ॥६॥ कवि शिलान्छाम्यामग्निहोत्रपरायणः । इटी पायांचनान्तीनाः केवलानिर्वपत्मदा ॥१०॥ इन में कोई गृहत्य पटकमोंमे जीता है (ऋत प्राचिन मिना कृषि प्राणिध और कुसीद में)ar की नीन कमों में जीता है (याजन, अध्यापन प्रनियः) औ, काई (बाजन और अध्यापन ) से और फाई (पढ़ाने) ने ॥९॥ शिलान्या में जीवन करता हुआ केपन महा अग्निहोत्र और पर्व तथा भान के अन्त में दृष्टि यज्ञ करं ||२०|| न लोकलचे बर्मन वृमिहनोः कयञ्चन । अजिबामशठां शुद्धां जीवे ब्रामणजीविकाम् ।।११।। संताप परमाम्याय सुन्वार्थी संयना भवन् । सनापमूलं हि सुख दुःखमूलं विषययः ॥१२॥ जीविकाफे लिये लागवृत्त (नाटकावि)कभी नकरें किन्तु असत्य और सम्मादिस रहिन पवित्र जीविका जो प्रामण मा की है करे ॥१९॥ सुन्यार्थी मन्तापर्स रहकर वथ चितरहे क्योकि मन्नार ही सुख का कारण है और कृष्णा दुःख का हेतु है ?|| अनोऽन्यतमया वृत्त्या जीवंस्तु स्नानको द्विजः। स्वायुप्य यशस्यानि बतानीमानि धारयेत् ॥१३॥ वेदादितं स्वकं कर्मनित्यं कुर्यादतन्द्रितः । तडिकुर्वन्यथाशक्ति प्राप्नोति परमांगतिम् ।।१४ ॥