पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/२०३

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२०० . . . मनुस्मृति भाषानुवाद इन में कोईसी वृत्तिसे निर्वाह करता हुआ स्नातक द्वित,स्वर्ग, शायु और यश देने वाले इन ब्रतो का धारण करे ।।१३।। अपना वेदोककर्म निन्य आलायरहित होकर यथाशक्ति करे क्योकि उसको. फरवा हुआ निश्चय परमगति (मोक्ष) को प्राप्त होता है ॥१४॥ नेहेतार्थान्प्रांगेन न विरुद्ध न कर्मणा । न विद्यमानेष्वर्थेषु नामिपि यतस्ततः ॥१५॥ इन्द्रियार्थेषु सर्वेषु न प्रसज्येत कामतः । अलिप्रसक्ति चैतेषां मनमा संनिवचयेत् ॥१६॥ गाने बजानं आदिसे शास्त्रविरुद्ध किसी कर्म से उव्योपार्जन न करें । द्रव्य हान परभी न करें और कष्टमेमी इधरउधरसे(पतितो) द्रव्यों का उपार्जन न करें ।। (९ प्राचीन लिखित पुस्तकोमे उत्तरार्थ इस प्रकार है किन्न कल्प्यमानेष्वर्थेषु नान्त्यादपि यतस्ततः) ॥१५॥ संपूर्ण इन्द्रियों के अर्थों (शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध ) में इच्छा से न फंसे । इन की वहुत आसक्ति को मन से हटा देवे (मघातिथि के भाष्य मे सन्निवत येत् - सनिवेशयेत् पाठ है ) ॥१६॥ सर्वान्परित्यजेदानस्वाध्यायस्य विगधिनः । यथातथाध्यापयंस्तु सा घस्थ कृतकृत्यता ॥१७॥ क्यसः कर्मणोऽर्थस्य श्रवस्याभिजनस्य च । चेपवाग्बुद्धिसारूप्यमाचरन्विचरेदिह वेदाध्ययन के विरोधी जितने अर्थ हैं सब को छोड़ देवे । जैसे बने वैसे वेदाध्ययन से निर्वाह करे यही उसकी कृतकृत्यताहै ॥१॥ आयु क्रिया धन विद्या और कुल इनके अनुरूप वेष वाणी और समझ आचरण करता हुआ इस जगत् मे रहे ॥१८॥ , ॥१८॥